________________
गीता दर्शन भाग-7
सात्विक नहीं है। सात्विक वह कर्म है, जो करुणा से निकल रहा है; जो दूसरे को ध्यान में रखकर निकल रहा है; जिसमें आपका कोई भीतरी पागलपन नहीं है। और अगर कुछ करने को न हो, तो आप बेचैन न होंगे। आप शांत बैठे होंगे; आनंदित होंगे। अगर आपको करने को कुछ भी न बचे, तो आप उतने ही आनंदित होंगे, जितना आप करते हुए आनंदित हैं।
लेकिन सेवा करने वालों का कर्म छीन लो, वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। वे पूछते हैं, अब क्या करें! खाली बैठना उन्हें कठिन है।
खाली सिर्फ वही बैठ सकता है, जो अपने साथ आनंदित है। जो स्वयं में आनंदित है, वही बैठ सकता है खाली । जो स्वयं में आनंदित नहीं है, वह कहीं न कहीं लगाए रखेगा अपने को; किसी कर्म में उलझाए रखेगा। वह उलझाव अपने से बचने की तरकीब है । वह एक एस्केप है, पलायन है, जिसमें अपने को भूला रहता और कहीं लगा रहता है।
सात्विक कर्म का अर्थ है, जो कर्म तुम्हारे हलकेपन से, तुम्हारी शांति से, तुम्हारे निर्भर होने से निकलता हो। तुम्हें करने की कोई मजबूरी नहीं है। लेकिन कोई परिस्थिति थी, जहां कुछ करने से किसी को लाभ होता, मंगल होता किसी का, किसी का शुभ होता, तो कर्म जब निकले, वह सात्विक है।
सात्विक कर्म सुख पैदा करेगा। सात्विक कर्म ही सुख पैदा करेगा। सुख का मतलब ही यह है कि जो तुम्हारे आनंद से निकले कर्म, वही तुम्हें सुख देगा। थोड़ा ठीक से समझ लें।
जो किसी और कारण से तुम्हारे भीतर से निकलेगा कर्म, वह तुम्हें सुख नहीं देगा। क्योंकि वस्तुतः सुख किसी चीज में नहीं है, हम डालते हैं। और अगर हममें न हो, तो हम नहीं डाल सकते।
मैं आपसे यहां बोल रहा हूं। अगर यह मेरे आनंद से निकल रहा है, तो यह बोलना आनंदपूर्ण हो जाएगा, क्योंकि मेरे आनंद में डूबा हुआ निकल रहा है। लेकिन अगर किसी और कारण से निकल रहा हो, तो इससे मुझे सुख नहीं मिल सकता।
आप जो भी करते हैं, करने से आप कुछ नहीं पाते। आप करने क्या डालते हैं भीतर से, उसी को पाते हैं। हम जो डालते हैं, वही हमें मिलता है।
अगर कोई आदमी सेवा करके भी दुखी है, तो इसका मतलब है, कर्म सात्विक नहीं है। अगर आप कुछ भी करके दुखी हो रहे हैं, तो इसका अर्थ है कि आप जो कर रहे हैं, वह सात्विक नहीं है। वह राजसिक होगा।
92
राजसिक कर्म से दुख निकलता है, क्योंकि राजसिक कर्म भीतरी दुख से पैदा होता है। मैं एक भी राजनीतिज्ञ को सुखी नहीं पाता हूं। बड़े कर्म में वे लीन हैं। विराट कर्म उन्हीं से चल रहा है! सारे अखबार उन्हीं से भरे होते हैं।
सात्विक आदमी के कामों की तो कोई खबर अखबार में होती नहीं। क्योंकि वे इतने चुपचाप होते हैं कि उनका शोरगुल पैदा नहीं होता । कभी-कभी सात्विक आदमी की भी खबर आती है अगर कोई राजसिक आदमी उनके काम में जुड़ जाए; कि विनोबा से मिलने अगर कभी कोई गवर्नर चला जाए, तो खबर छपती है; कि पंडित नेहरू विनोबा के पास चले जाएं, तो खबर छपती है। छपती | है नेहरू की वजह से। लेकिन मजबूरी है। क्योंकि विनोबा के पास गए, इसलिए वह नाम भी छापना पड़ता है।
सात्विक व्यक्ति तो खबर की दुनिया के बाहर चुपचाप काम में लगा होता है। राजनैतिक बड़े काम करता है; विराट कर्म का जाल उसी का है; सारा खेल उसका है। यह सारा प्रपंच परमात्मा का जो चलाता है, उसमें नब्बे परसेंट राजनैतिक चलाता है। लेकिन सुखी बिलकुल नहीं है । इतना करके भी सुख की कोई छाया भी नहीं मिलती।
ढेर राजनीतिज्ञ मेरे पास आते हैं। जब वे पदों पर नहीं रह जाते, तब तो जरूर आते हैं। लेकिन वे कहते हैं, कोई सुख नहीं है, कोई शांति नहीं है। कोई मार्ग बताएं। इतने कर्म के बाद अगर कोई सुख न मिल रहा हो, तो कर्म का फल क्या है!
एक आदमी कहे कि मैं मीलों दौड़ता हूं, लेकिन मंजिल दिखाई भी नहीं पड़ती है, पास आने की तो बात अलग है ! तो उससे हम कहेंगे, फिर तू दौड़ता क्यों है! क्योंकि दौड़ना अगर मंजिल तक न ले जाए, तो क्यों अपनी शक्ति व्यय कर रहा है। इससे तो बैठ रह । | और अगर दौड़ने से मंजिल पास नहीं आती, तो यह भी डर है कि कहीं तू उलटी दिशा में तो नहीं दौड़ रहा है। नहीं तो दूर निकल जाए। और दौड़ने से मंजिल दूर हो जाए, इससे तो बैठा हुआ आदमी भी कम से कम एक लाभ में है। पास न जाए, दूर तो निकल ही नहीं सकता। बैठा हुआ आदमी कम से कम भटक तो नहीं सकता। उतनी सुरक्षा है।
लेकिन यह दौड़ने वाला राजनैतिक है। इसके कर्म बड़े हैं, परिणाम न के बराबर है।
सिकंदर दुखी मरता है, विराट कर्म के बाद । नेपोलियन दुखी मरता है, विराट कर्म के बाद। हिटलर आत्मघात करता है; लेनिन