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________________ त्रिगुणात्मक जीवन के पार व्यक्ति हैं। गीता उनसे नहीं कही जा सकती। कृष्ण जैसे व्यक्तित्व का संपर्क परंपरागत चेतना से नहीं हो सकता। कृष्ण को तो वहीं समझ पाएगा, जो परंपरागत नहीं है। जो शास्त्र से बंधा नहीं है, और जिसकी जिज्ञासा आंतरिक है । अर्जुन की जिज्ञासा में बड़ा फर्क है। अर्जुन के लिए यह जीवन-मरण की समस्या है। युद्ध के इस क्षण में वह कोई शास्त्र का विवेचन नहीं उठा रहा है। युद्ध के इस क्षण में उसकी चेतना में ही यह पीड़ा खड़ी हो गई है, एक अंतर्द्वद्व उठ खड़ा हुआ है, कि जो मैं कर रहा हूं, क्या वह करने योग्य है ? वस्तुतः सच तो यह है कि शास्त्र तो कहते हैं, क्षत्रिय का धर्म है | कि लड़े। क्षत्रिय को युद्ध में कुछ भी पाप नहीं है। क्षत्रिय काटे, इसमें कुछ पाप नहीं है। वह उसके क्षत्रिय होने का हिस्सा है। लेकिन अर्जुन को एक अस्तित्वगत, एक्झिस्टेंशियल सवाल खड़ा हो गया है। वह यह कि अगर मैंने इन सब को मार ही डाला और इनको मारकर मैं इस राज्य का मालिक भी हो गया, तो क्या वह राज्य, वह मालकियत इतनी कीमत की है कि इतने जीवन नष्ट किए जाएं? क्या मुझे यह हक है कि मैं इतने जीवन नष्ट करूं? सिर्फ इस सुख को पाने के लिए कि मैं सम्राट हो गया! क्या सम्राट होने का इतना अर्थ है? इतना मूल्य है ? इतने जीवन के विनाश का कोई कारण है? अर्जुन का सवाल उसकी निजता से उठा है। वह किसी शास्त्र से नहीं आया है। अगर अर्जुन भी शास्त्रीय होता, तो गीता का सवाल ही नहीं उठता। युधिष्ठिर यह सवाल नहीं पूछते । युधिष्ठिर जुआ खेलते वक्त नहीं पूछे; पत्नी को दांव लगाते वक्त नहीं पूछे। युद्ध केक्षण में भी क्यों पूछते ! सदा से क्षत्रिय लड़ता रहा है। और अपनी रक्षा के लिए और अपनी संपदा के लिए और अपनी सीमा और राज्य के लिए लड़ना उसका कर्तव्य है। यह बात उठती नहीं थी । अर्जुन को उठी। अर्जुन बड़ी आधुनिक चेतना है, एक अर्थ में । यह केवल उसी व्यक्ति को उठ सकता है, ऐसी संकट की स्थिति, जो परंपरा से बंधा हुआ नहीं है; युवा है; जीवंत है; जीवन को जी रहा है और जीवन में समस्याएं हैं, उनको हल करना चाहता है। इसलिए गीता जैसा जीवंत शास्त्र ज में दूसरा नहीं है। क्योंकि गीता जैसी जीवंत स्थिति किसी शास्त्र के जन्म में कारणभूत नहीं बनी। युद्ध अत्यंत संकट का क्षण है। जहां मृत्यु निकट है, वहां जीवन अपनी पूरी ज्योति में जलता है । जितनी घनी होती है मृत्यु, जितना अंधकार मृत्यु का सघन होता है, उतनी ही जीवन की बिजली जोर | से चमकती है । मृत्यु के क्षण में ही जीवन का सवाल उठता है कि जीवन क्या है। कुरान है, बाइबिल है, महावीर के वचन हैं, बुद्ध के वचन हैं, बड़े बहुमूल्य । लेकिन उनकी परिस्थिति इतनी जीवंत नहीं है। जीवन के इतने घनेपन में, जहां मृत्यु चारों तरफ खड़ी हो, जहां निर्णय बड़ा मूल्यवान होने वाला है; लाखों लोगों का जीवन निर्भर करेगा अर्जुन के निर्णय पर । अर्जुन भाग जाता है तो, अर्जुन लड़ता है तो, अर्जुन के ऊपर भाग्य - निर्धारण है लाखों लोगों के जीवन का। अगर महावीर के पास कोई कुछ पूछने आया है, तो उसके जीवन का निर्धारण होगा, उसकी अपनी निजी बात होगी। लेकिन अर्जुन का सवाल बड़ा गहन है। उसके साथ लाखों जीवन बुझेंगे, जलेंगे। वह जो पूछ रहा है, बड़ा शाश्वत है। अर्जुन को ही गीता कही जा सकती है, धर्मराज युधिष्ठिर को नहीं । और अर्जुन कोई धार्मिक व्यक्ति नहीं है, यह ध्यान रखें। इसीलिए प्रश्न उठ सका। धार्मिक व्यक्ति होता, तो प्रश्न उठता ही नहीं। अगर वह धार्मिक होता, परंपरा के अनुसार हिंदू होता, तो वह | लड़ता । क्योंकि क्षत्रिय का धर्म है लड़ना । कोई शास्त्र नहीं कहता | हिंदुओं का कि क्षत्रिय न लड़े। लड़ना उसका धर्म है। वह क्षत्रिय होके भीतर है। अगर अर्जुन जैन होता जन्म से, तो लड़ने का सवाल ही नहीं उठता था । लड़ना पाप है। युद्ध का मौका ही नहीं आता। वह कभी का संन्यस्थ हो गया होता; वह कभी का जंगल चला गया होता। | अगर अर्जुन जैन या बौद्ध होता, तो कभी का जा चुका होता। अगर हिंदू होता, परंपरागत, तो लड़ता । यह कोई सवाल नहीं था । अर्जुन धार्मिक नहीं है, इसीलिए उसकी चिंतना मौलिक है। वह किसी शास्त्र से, किसी विधि से बंधा हुआ नहीं है। वह किसी को मानकर चल नहीं रहा है। जीवन सवाल उठा रहा है, वह अपना उत्तर खोज रहा है। इस खोज से ही कृष्ण उससे संबंध जोड़ पाए। कृष्ण जैसे व्यक्ति केवल उन्हीं लोगों से संबंध जोड़ पा सकते हैं, जो बंधे हुए लीक से, किसी लकीर से जुड़े हुए नहीं हैं, जो मुक्त और जिनके प्रश्न अपने हैं। 19 मेरे पास जैन आते हैं। वे पूछते हैं, निगोद क्या है? जैनों के सिवाय कोई मुझसे कभी नहीं पूछा कि निगोद क्या है। क्योंकि किसी के शास्त्र में निगोद का वर्णन नहीं है। वह जैनों के शास्त्र में हैं। वह जैनों का अपना पारिभाषिक शब्द है । आपके मन में तो
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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