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________________ गीता दर्शन भाग-7 * सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः। | करते, जैसा एक साधक करे। उनके लिए तत्वचर्चा एक बौद्धिक तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।। ४ ।। विलास है, जीवन-मरण की समस्या नहीं। सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः । धर्मराज परंपरा से धार्मिक हैं। शास्त्रों ने क्या कहा है, इसे वे निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ।। ५।। जानते हैं। उनका अस्तित्व धार्मिक नहीं है। उन्होंने अस्तित्वगत तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् । रूप से धर्म को खोजा नहीं। उसके जीवन में भी उसके स्पष्ट सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ।। ६ ।। लक्षण मिलेंगे। तथा हे अर्जुन, नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी परंपरागत रूप से जो आदमी धार्मिक है, उस आदमी के पास मूर्तियां अर्थात शरीर उत्पन्न होते हैं, उन सबकी त्रिगुणमयों कोई निज की चेतना नहीं होती। वह स्वयं नहीं सोचता। नियम के माया तो गर्भ को धारण करने वाली माता है और मैं बीज अनुसार चलता है। नियम अगर गलत हो, तो वह गलत चलता है। को स्थापन करने वाला पिता। नियम अगर सही हो, तो वह सही चलता है। समाज जिसे भी ठीक हे अर्जुन, सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, ऐसे यह प्रकृति कहता है, उसे वह मानता है, चाहे वह गलत ही क्यों न हो। से उत्पन्न हुए तीनों गुण इस अविनाशी जीवात्मा को शरीर में महाभारत के उन दिनों में जुए को अनैतिक नहीं माना जाता था, ___ बांधते हैं। वह अधार्मिक भी नहीं था। सिर्फ एक खेल था। जैसे कोई आज हे निष्पाप, उन तीनों गुणों में प्रकाश करने वाला निर्विकार फुटबाल खेल रहा है, वालीबाल खेल रहा है; और उस खेल में सत्वगुण तो निर्मल होने के कारण सुख की आसक्ति से कोई अनैतिकता नहीं है। ऐसा ही जुआ भी खेल था; एक क्रीड़ा थी। और ज्ञान की आसक्ति से अर्थात ज्ञान के अभिमान से उसमें कोई अनीति नहीं थी। तो समाज में कोई जुए के विपरीत भाव बांधता है। | नहीं था। युधिष्ठिर जुआ खेल सकते हैं। उन्हें इसमें जरा भी अड़चन नहीं हुई। धर्मराज होने मात्र से जुआ खेलने में उन्हें कोई पीड़ा, कोई सूत्र के पहले थोड़े-से प्रश्न। विचार नहीं उठा। और जुआ ही नहीं खेल सकते, अपनी स्त्री को पहला प्रश्नः पांडवों में ज्येष्ठ युधिष्ठिर को धर्मराज दांव पर भी लगा सकते हैं। क्योंकि उस समाज में स्त्री पुरुष की कहा गया है, लेकिन कृष्ण ने धर्मराज को छोड़कर | संपत्ति थी, स्त्री-धन! उन दिनों तक समाज की चेतना इस जगह अर्जुन को गीता कही। ऐसा क्यों? क्या धर्मराज पात्र नहीं थी कि स्त्री को हम स्वतंत्र व्यक्तित्व दिए होते। वह पुरुष की न थे? संपत्ति थी, पति की संपदा थी। तो जब मैं अपना धन लगा सकता हूं, तो अपनी पत्नी भी लगा सकता हूं। क्योंकि पत्नी मेरा पजेशन थी, मेरा परिग्रह थी। द स संबंध में बहुत सी बातें समझनी जरूरी हैं। पहली युधिष्ठिर द्रौपदी को दांव पर लगा सकते हैं। उनकी चेतना को र बात, धर्म को जानना शास्त्र से, परंपरा से, एक बात | | जरा भी चोट नहीं हुई। उन्हें ऐसा नहीं लगा कि मैं यह क्या कर रहा ___ है। धर्म को जानना जीवन से, बिलकुल दूसरी बात है। हूं! कोई व्यक्ति किसी की संपत्ति कैसे हो सकता है ? वस्तु संपत्ति और जीवन से केवल वे ही जान सकते हैं, जिनके ऊपर शास्त्रों का, नहीं हो सकती वस्तुतः तो; तो व्यक्ति तो संपत्ति कैसे हो सकता है? परंपरा का बोझ न हो। | व्यक्ति पर कोई मालकियत नहीं हो सकती। और व्यक्तियों को जुए जिनके ऊपर शास्त्रों का बोझ है, उनकी जिज्ञासा कभी भी | के दांव पर नहीं लगाया जा सकता। लेकिन वह समाज, उन दिनों मौलिक नहीं हो पाती। उनकी जिज्ञासा भी झूठी होती है। वे प्रश्न की परंपरा स्त्री को संपदा मानती थी; पुरुष उसे जुए पर दांव पर भी पूछते हैं, तो शास्त्रों के कारण। प्रश्न भी उनके अपने नहीं होते। लगा सकता था। उनके प्रश्न सैद्धांतिक होते हैं, जीवंत नहीं। वे तत्व की चर्चा करते | | तो युधिष्ठिर को कोई अपनी चेतना नहीं है। न अपना कोई हैं, जैसा एक विचारक करे। लेकिन वे तत्व की वैसी खोज नहीं | विचार है, न अपनी कोई जिज्ञासा है। वे परंपरागत रूप से धार्मिक
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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