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________________ गीता दर्शन भाग-7 * द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। | ही शक्तिशाली हो जाती है। जितने विचार बिखरे हों, ऊर्जा उतने क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते । । १६ ।। अनेक मार्गों से बहती है; तब क्षुद्र शक्ति हाथ में रह जाती है। जिस ____उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहतः।। | विचार के प्रति भी आप एकाग्र हो जाते हैं, वह विचार शीघ्र ही यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ।। १७ ।। यथार्थ में परिणत हो जाएगा। जिस विचार में मन डांवाडोल होता ___ यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः । | है, उसके यथार्थ में परिणत होने की कोई संभावना नहीं है। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ।। १८।। एकाग्रता तो सांसारिक मनुष्य भी चाहता है। और सांसारिक हे अर्जुन, इस संसार में क्षर अर्थात नाशवान और अक्षर | मनुष्य को भी अगर कहीं सफलता मिलती है, तो एकाग्रता के अर्थात अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं। उनमें संपूर्ण भूत | | कारण ही मिलती है। वैज्ञानिक भी एकाग्रता के माध्यम से ही खोज प्राणियों के शरीर तो क्षर अर्थात नाशवान और कूटस्थ | कर पाता है। संगीतज्ञ भी एकाग्रता के माध्यम से ही संगीत की गहरी जीवात्मा अक्षर अर्थात अविनाशी कहा जाता है। कुशलता को उपलब्ध होता है। लेकिन साक्षी-भाव में केवल तथा उन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है कि जो तीनों धार्मिक व्यक्ति उत्सुक होता है। लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है एवं सांसारिक व्यक्ति की साक्षी-भाव में कोई भी उत्सुकता नहीं अविनाशी ईश्वर और परमात्मा, ऐसे कहा गया है। | होती। और अगर साक्षी-भाव उसे कहीं रास्ते पर पड़ा हुआ भी मिल क्योंकि मैं नाशवान जड़वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूं और | जाए, तो भी वह उसे चुनना पसंद न करेगा। क्योंकि साक्षी-भाव माया में स्थित अक्षर, अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं, | का परिणाम शांति है। और साक्षी-भाव का परिणाम शून्य हो जाना इसलिए लोक में और वेद में पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूं। | है। साक्षी-भाव का परिणाम मिट जाना है। वह महामृत्यु जैसा है। एकाग्रता से तो आपका ही मन मजबूत होता है और अहंकार प्रबल होगा। साक्षी-भाव से मन शांत होता है, समाप्त होता है, पहले कुछ प्रश्न। अंततः मिट जाता है और अहंकार विलीन हो जाता है। साक्षी-भाव पहला प्रश्नः कल एकाग्रता का आपने भारी मूल्य | मन के पीछे छिपी आत्मा की अनुभूति है। और एकाग्रता मन की बताया है, पर आप अपने ध्यान प्रयोगों में एकाग्रता ही बिखरी शक्तियों को इकट्ठा कर लेना है। की अपेक्षा साक्षी-भाव पर अधिक जोर देते हैं। ऐसा इसलिए एकाग्रता को उपलब्ध व्यक्ति जरूरी नहीं है कि धार्मिक किस कारण है? हो जाए। लेकिन साक्षी-भाव को उपलब्ध व्यक्ति अनिवार्यरूपेण धार्मिक हो जाता है। एकाग्रता परमात्मा तक नहीं ले जाएगी। और अगर आप 5 काग्रता शक्ति को उपलब्ध करने की विधि है। परमात्मा की खोज एकाग्रता के माध्यम से कर रहे हों, तो एक न ए साक्षी-भाव शांति को उपलब्ध करने की विधि है। एक दिन आपको एकाग्रता भी छोड़ देनी पड़ेगी। क्योंकि परमात्मा शक्ति उपलब्ध करने से जरूरी नहीं है कि शांति तभी मिलता है, जब आप ही बचे। इसे थोड़ा समझ लें। उपलब्ध हो। लेकिन शांति उपलब्ध करने से शक्ति अनिवार्यरूपेण । अगर दो मौजूद हों, आप और आपका परमात्मा, तो परमात्मा उपलब्ध हो जाती है। | की उपलब्धि नहीं होने वाली है। जब आप ही बचे, तब ही परमात्मा जो व्यक्ति शक्ति की खोज में हैं, उनका रस एकाग्रता में होगा। की उपलब्धि होने वाली है। या परमात्मा ही बचे, आप न बचें, तो जैसे सूरज की किरणें इकट्ठी हो जाएं, तो अग्नि पैदा हो जाती है। उसकी उपलब्धि हो सकती है। वैसे ही मन के सारे विचार इकट्ठे हो जाएं, तो शक्ति पैदा हो जाती । एकाग्रता में तो सदा दो बने रहते हैं। एक आप, जो एकाग्र हो है। थोड़े से प्रयोग करें, तो समझ में आ सकेगा। रहा है और एक वह, जिसके ऊपर एकाग्र हो रहा है। एकाग्रता में जब भी मन एकजुट हो जाता है, तब आपके जीवन की पूरी ऊर्जा द्वैत नहीं नष्ट होता; दुई तो बनी ही रहती है। साक्षी-भाव में द्वैत एक दिशा में बहने लगती है। और जितना संकीर्ण प्रवाह हो, उतनी नष्ट होता है, अद्वैत की उपलब्धि होती है। 2481
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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