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* गीता दर्शन भाग-7
तीन के बंधन के बाहर है। उसकी निर्गुणता का अर्थ है, वह परम स्वतंत्र है। और आपके भीतर जो छिपा है, वह भी परम स्वतंत्र है। लेकिन उसके चारों तरफ बंधन है। बंधन से आपकी स्वतंत्रता नष्ट नहीं हो गई है, सिर्फ अवरुद्ध हो गई है।
कोई बंधन स्वतंत्रता को नष्ट नहीं करता। मेरे हाथों में कोई हथकड़ियां डाल दे, इससे मेरी स्वतंत्रता नष्ट नहीं होती, सिर्फ अवरुद्ध हो जाती है। मैं अपनी स्वतंत्रता का प्रयोग नहीं कर सकता। लेकिन मेरी स्वतंत्रता नष्ट नहीं होती। कल मेरी जंजीरें टूट जाएं; मेरी स्वतंत्रता मेरे पास थी; सिर्फ अवरोध हट गया।
तो कोई भी चेतना किसी भी स्थिति में स्वतंत्रता तो नहीं खोती है, लेकिन अवरोध खड़े हो जाते हैं। और अगर अवरोधों से हमारा लगाव हो जाए, तब बड़ी कठिनाई हो जाती है। वही कठिनाई है।
हमारे हाथ में जंजीरें नहीं हैं। और अगर जंजीरें हैं, तो हम उनको आभूषण समझे हुए हैं। और हमने उनमें हीरे, चांदी, सोना जड़ लिया है। हमने उनमें रंग-बिरंगे चित्र बना लिए हैं। अब अगर कोई हमारी जंजीर तोड़ना भी चाहे, तो हम उसको समझेंगे, यह दुश्मन है, हमारे सौंदर्य को, हमारे आभूषण को नष्ट कर रहा है।
और जब भी कोई व्यक्ति अपनी जंजीर को आभूषण समझ ले, तो उसकी स्वतंत्रता बहुत मुश्किल हो गई। अगर कोई कारागृह को अपना घर समझ ले और सजावट करने लगे, तब फिर उसके छुटकारे का कोई उपाय न रहा । छुटकारे के लिए पहली बात तो जान लेनी जरूरी है कि मैं कारागृह में हूं। और इसे सजाना नहीं है, इसे तोड़ना है । और जो मुझे बांधे हुए हैं, वे आभूषण नहीं हैं, जंजीरें हैं। उनसे गौरवान्वित नहीं होना है; उनसे छुटकारा पाना है।
हे अर्जुन, रागरूप रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न हुआ जान । वह इस जीवात्मा को कर्मों की और उनके फल की आसक्ति से बांधता है।
सत्वगुण को कृष्ण ने कहा कि वह सुख की आसक्ति और ज्ञान का अभिमान, इससे बांधता है।
जिसको हम पांडित्य कहें, वह सत्व से बंधा हुआ व्यक्तित्व है। जिसको हम साधुत्व कहें, वह भी सत्व से बंधा हुआ व्यक्तित्व है। उसकी दो आकांक्षाएं हैं। एक आकांक्षा है कि उसे सुख मिले। इसलिए वह स्वर्ग को खोजता है। स्वर्ग का मतलब है, जहां दुख बिलकुल न हो, सिर्फ सुख हो । वह स्वर्ग की खोज के लिए सब कुछ करने को तैयार है। तप करेगा, पूजा, यज्ञ, सब करेगा, लेकिन स्वर्ग मिले। ऐसी जगह मिल जाए, जहां सुख ही सुख हो; शुद्ध
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सुख
हो और दुख न हो। सत्व ऐसे लोगों को बांध लेता है। स्वर्ग भी बंधन है। देवता मुक्त नहीं हैं।
बुद्ध के जीवन में कथा है कि जब बुद्ध को परम ज्ञान हुआ, तो ब्रह्मा और अनेक देवताओं ने आकर उनके चरणों में निवेदन किया कि हमें उपदेश दें।
हिंदुओं को इस कहानी से बड़ी चोट पहुंची। उनको लगा, हमारे | देवता और बुद्ध के चरणों में क्यों प्रार्थना करने जाएं? लेकिन बात बड़ी कीमती है। देवता किसी के भी हों, बुद्ध के चरणों में नमस्कार करने जाना ही होगा। बुद्ध किसी के भी नहीं हैं। देवता किसी के भी | हों! लेकिन जब भी बुद्धत्व घटित होता है, तो देवता को भी चरणों में नमस्कार करने और मार्ग खोजने जाना होगा। ब्रह्मा ने कहा कि उपदेश दें, क्योंकि हम भी बंधे हैं। तुम सुख से भी मुक्त हो गए; हम सुख से बंधे हैं। सुख ही सुख है हमारे जीवन में, लेकिन दुख का डर मौजूद है। क्योंकि जो भी है, उसके खोने का डर होता है।
धनी के पास कितना ही धन हो, धन के खोने का डर तो दुख देता ही है । इसलिए हम कंपते रहते हैं कि कब हमारा सुख छिन जाए। और सुख हमने कमाया है पुण्यों से, उसकी एक मात्रा है। पुण्य चुक जाएंगे, सुख चुक जाएगा। तब हम वापस दुख में फेंक | दिए जाएंगे। तो हम कंपित हैं। हम डरे हुए हैं। हम घबड़ाए हुए हैं। हमें आश्वस्त करें। आप सुख से भी मुक्त हो गए हैं। अब आपको | कोई भय न रहा। अब आपको कोई कंपा नहीं सकता; क्योंकि | आपसे अब कोई कुछ छीन नहीं सकता। आपके पास कुछ है ही | नहीं जो छीना जा सके। आप सिर्फ आप हैं, जिसको छीनने का कोई | उपाय नहीं है, चुराने का कोई उपाय नहीं है, मिटाने का कोई उपाय | नहीं है। आप उस परम मुक्त अवस्था को उपलब्ध हो गए हैं, जिसके लिए देवता भी तरसते हैं, हम तरसते हैं।
सत्व देवत्व तक ले जा सकता है। वह शुद्धतम जंजीर है, सुंदरतम जंजीर है। तो जिनके मन में सुख की गहरी आकांक्षा है – सुख की, शांति की या आनंद की — जिनके मन में गहरी आकांक्षा है सुख की, आनंद की, शांति की, वे सत्व से मुक्त न हो | पाएंगे। क्योंकि सत्व सुख देता है। और जो सुख देता है, उससे हम बंध जाएंगे।
जिनके मन में आसक्ति है, लगाव है, जो किसी दूसरे व्यक्ति के ऊपर निर्भर होते हैं अपने सुख लिए...। पति है, वह कहता है, पत्नी के बिना मैं नहीं जी सकता। या पत्नी है, वह कहती है, पति