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गीता दर्शन भाग-7
लाओत्से निकल गया होता, ताओ - तेह-किंग न होती और लाओत्से के नाम का भी आपको पता नहीं होता। यह सारा गुण चुंगी चौकी के उस अधिकारी को जाता है, जिसका किसी को नाम पता नहीं कि वह कौन आदमी था। इसलिए लाओत्से के पीछे कोई बड़ा विराट आयोजन नहीं हो सका।
महावीर सत्व के प्रेमी हैं और उनका व्यक्तित्व सत्व से भरा है। इसलिए महावीर का धर्म बहुत नहीं फैल सका। क्योंकि उसमें कर्मठता नहीं है। आज भी हिंदुस्तान में केवल बीस-पच्चीस लाख जैन हैं। अगर महावीर ने पच्चीस जोड़ों को जैनी बना लिया होता, तो दो हजार साल में उनसे पच्चीस लाख आदमी पैदा हो जाते। पच्चीस लाख कोई संख्या नहीं है; फैल नहीं सका।
लेकिन ईसाइयत फैली, क्योंकि रजस-प्रधान है। ईसाइयत फैली, सारी जमीन को ढंक लिया उसने। इस्लाम फैला, सारी जमीन को ढंक लिया उसने। दोनों रज-प्रधान हैं। मोहम्मद तो बहुत ही ज्यादा रज - प्रधान हैं। उनका तो सारा व्यक्तित्व रजस से भरा है। हाथ में तलवार है। और किसी भी भांति फैलाना है वह, जो उन्होंने जाना है।
आज जमीन वस्तुतः दो बड़े धर्मों में बंटी है, ईसाइयत और इस्लाम । बाकी धर्म नगण्य हैं।
यह जो बुद्ध के धर्म का प्रचार हो सका, वह भी एक अनूठी घटना है। क्योंकि बुद्ध के धर्म का प्रचार भी होना नहीं चाहिए। जैसा महावीर सिकुड़ गए, ऐसा ही बुद्ध की बात भी सिकुड़ जानी चाहिए। वे भी सत्व-प्रधान व्यक्तित्व हैं। लेकिन एक सांयोगिक घटना इतिहास की और जिसने बुद्ध के धर्म को मौका दे दिया फैलने का।
अगर बुद्ध का धर्म भारत में ही रहता, तो कभी नहीं फैलता । जितने जैन हैं, उससे भी कम बौद्ध भारत में बचे हैं। अभी नए बौद्धों को भी गिन लिया जाए, तो तीस लाख होते हैं।
नए बौद्ध कोई बौद्ध नहीं हैं। एक राजनैतिक चालबाजी है। अंबेदकर का बौद्ध धर्म से क्या लेना-देना! अंबेदकर पच्चीस दफा सोच चुका पहले कि मैं ईसाई हो जाऊं और सब हरिजनों को ईसाई बना लूं। यह सिर्फ एक राजनैतिक स्टंट था। फिर उसे लगा कि बौद्ध हो जाना ज्यादा बेहतर है। तो अंबेदकर बौद्ध हो गए। और अंबेदकर ने सैकड़ों हरिजनों को, विशेषकर महाराष्ट्र में, बौद्ध बना लिया। इनका बौद्ध धर्म से कोई लेना-देना नहीं। भारत में बौद्ध हैं ही नहीं, खोजना मुश्किल है।
भारत में अगर बुद्ध धर्म रुका होता, जैसा कि जैन धर्म रुका,
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जैन धर्म से भी बुरी हालत थी। लेकिन हिंदुओं की कृपा से! हिंदुओं ने बौद्धों का इस बुरी तरह विनाश किया कि बौद्ध भिक्षुओं को | हिंदुस्तान छोड़कर भाग जाना पड़ा। ये जो भागते हुए भगोड़े बौद्ध | भिक्षु थे, ये बौद्ध धर्म को हिंदुस्तान के बाहर ले गए। । और हिंदुस्तान | के बाहर इन बौद्ध भिक्षुओं को वे लोग मिल गए, जो रज-प्रधान हैं।
हिंदुस्तान के बाहर इनको प्रचारक मिल गए, क्योंकि वैक्यूम | था । और खाली जगह प्रकृति को पसंद नहीं है। चीन में जब पहुंचे बौद्ध, तो कनफ्यूसियस का प्रभाव था। लेकिन कनफ्यूसियस सिर्फ नैतिक है, उसका कोई धर्म नहीं है। और लाओत्से का प्रभाव था। लाओत्से बिलकुल आलसी है, उसके प्रचार का कोई उपाय नहीं । खाली जगह थी। बौद्ध विचार की छाया एकदम जोर से 'अनुभव होने लगी। सम्राट चीन के बौद्ध हो गए। सम्राट होते हैं रज - प्रधान ।
हिंदुस्तान में भी बौद्ध धर्म को बाहर भेजने में अशोक ने काम | किया। वह बुद्ध के ऊपर उसका श्रेय नहीं है, अशोक के ऊपर है। सम्राट होते हैं रज-प्रधान। यह अशोक लड़ रहा था; युद्धों में लगा था। और फिर यह बौद्ध हो गया। एक रूपांतरण ! हिंसा से दुखी होकर, पीड़ित होकर अपने ही हाथ से लाखों लोगों को मरा हुआ | देखकर एकदम उलटा हो गया; शीर्षासन कर लिया। हिंसा का बिलकुल इसने त्याग कर दिया। इसने बौद्ध धर्म को भेजा। इसने जिनके हाथ से भेजा, वे एक तरह के राजनैतिक संदेशवाहक थे। अशोक ने अपने बेटे को भेजा, अपनी बेटी संघमित्रा को भेजा लंका, प्रचार करने।
अशोक ने राजनैतिक ढंग से बौद्ध धर्म को बाहर भेजा। वह | रज-प्रधान व्यक्ति था । और सम्राट रूपांतरित हुए, तो बौद्ध धर्म फैला।
ध्यान रहे, जब भी कोई धर्म फैलेगा, तो उसके पीछे रजस ऊर्जा चाहिए। धर्म को जन्म देने वाला व्यक्ति किस तरह के व्यक्तित्व का है, इस पर निर्भर करेगा ।
कृष्ण को समझ लेना इस संदर्भ में जरूरी है।
कृष्ण स्वयं, इन तीनों में से किसी की भी प्रधानता उनमें नहीं है। कृष्ण में ये तीनों गुण, कहें, समान हैं; बराबर मात्रा के हैं । और इसलिए कृष्ण में तीनों बातें पाई जाती हैं। वह जो तामसिक आदमी कर सकता है, कृष्ण कर सकते हैं। वह जो राजसिक आदमी कर सकता है, कृष्ण कर सकते हैं । वह जो सात्विक आदमी कर सकता है, कृष्ण कर सकते हैं।
आपने कृष्ण का एक नाम सुना है, रणछोड़दास । हिंदू बहुत