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________________ * आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं उसने सुना है और समझा है, उसे करेगा भी। चार सुन लेंगे, समझ लेंगे, पंडित हो जाएंगे। सौ के साथ मेहनत करो, कभी कोई एक यात्रा पर जा पाता है। धर्म का निमंत्रण सबके लिए है, लेकिन विरले उसे सुन पाते हैं। तीसरा प्रश्नः गीता कहती है कि दैवी संपदा मुक्त करती है और आसुरी संपदा बांधती है। इस संदर्भ में क्या बताएंगे कि बंधन क्या है और मुक्ति क्या है? त की ऐसी दशा, जहां कोई संताप न हो, जहां कोई सीमा का अनुभव न हो, जहां कोई सीमांत न आता | हो; चित्त की ऐसी दशा, जैसे खुला आकाश हो; कोई | दीवारें चारों तरफ से घेरने को नहीं, कोई पीड़ा की रेखा नहीं, क्योंकि सब पीड़ा की रेखाएं घेरती हैं, बंद करती हैं; आनंद खोलता है; फैलाता है; जहां चित्त की दशा फैलती हो । हमारा जो शब्द है, इस देश में हम उपयोग करते हैं परम स्थिति के लिए, वह ब्रह्म है। ब्रह्म का अर्थ होता है, जो फैलता ही चला जाता है, एक्सपैंडिंग, इनफिनिटली एक्सपैंडिंग, जो फैलता ही चला जाता है, विस्तार जिसका गुणधर्म है। एक कंकड़ को फेंक दें पानी में, लहर उठती है, फैलती चली जाती है। अगर पानी असीम हो, तो वह लहर फैलती ही चली जाएगी; किनारा होगा, तो टूट जाएगी; किनारे पर जाकर बिखर जाएगी। अगर कोई किनारा न हो, तो फैलती ही चली जाएगी। आनंद का कोई किनारा नहीं है, क्योंकि इस अस्तित्व का कोई किनारा नहीं है। यह जो आकाश हमें दिखाई पड़ता है, यह कहीं है नहीं, यह सिर्फ हमारी आंखों की देखने की क्षमता कम है। जहां तक आंखें देख पाती हैं, वहीं आकाश हमें बंद होता मालूम होता है, अन्यथा आकाश कहीं भी नहीं है। आकाश का अर्थ है, जो है ही नहीं । अनंत फैलाव है। इस फैलाव की कोई सीमा नहीं है। जब चेतना ऐसी अवस्था में होती है कि उसमें उठते हुए आनंद की तरंगें फैलती ही चली जाती हैं, कहीं कोई किनारा नहीं है, तब मुक्त क्षण है, तब मुक्ति है। और जब चेतना तड़फड़ाती है, और एक भी लहर नहीं फैल पाती, और सब तरफ दीवारें आ जाती हैं; जहां बढ़ते हैं, वहीं बंधन आ जाता है, वहीं लगता है पैर में जंजीरें हैं, आगे नहीं जा सकते, उस दशा का नाम बंधन है। कई प्रकार से हमें बंधन का अनुभव होता है। कितने ही प्रसन्न होते हों हम, शरीर की सीमा बंधी है। शरीर कभी स्वस्थ है, कभी अस्वस्थ है; कभी जवान है, कभी बूढ़ा है; कभी प्रफुल्लित है, कभी उदास है। उसकी सीमा आपके ऊपर बंधी है। अगर शराब डाल दी जाए शरीर में, तो आपकी चेतना भी उसी के साथ बेहोश हो जाती है। शरीर से रक्त निकाल लिया जाए, तो उसी के साथ आपकी चेतना भी दीन-हीन हो जाती है। शरीर जीर्ण-जर्जर, बूढ़ा हो जाए, उसी के साथ आप भी भीतर झुक जाते हैं और टूट जाते हैं। शरीर की सीमा खड़ी है। दूर जरा आगे देखें, तो मौत की सीमा खड़ी है। मरना होगा, मिटना होगा। और प्रतिपल हजार तरह की सीमाएं हैं। क्रोध की, घृणा की, मोह की, लोभ की सीमाएं हैं। सब तरफ से बांधे हुए हैं। यह जो अवस्था है, यह बंधन की अवस्था है। 339 कृष्ण कहते हैं, आसुरी संपदा का अर्थ है, इस तरह की संपत्ति को बढ़ाना और इकट्ठा करना, जिसमें हम बंधते हैं, जिसमें हम खुलते नहीं, उलटे उलझते हैं। दैवी संपदा का अर्थ है, ऐसी संपदा, इन बंधनों को तोड़ती है। ध्यान करें, अगर आप लोभ से भरे हैं, तो आपको हर जगह सीमा मालूम पड़ेगी। कितना ही धन आपके पास हो, लगेगा कम है। लोभी मन को कभी ऐसा लग ही नहीं सकता कि मेरे पास ज्यादा है। सोचें इसको आप, लोभी मन को कभी लग ही नहीं सकता कि मेरे पास ज्यादा है; उसे सदा लगेगा, मेरे पास कम है। कितना ही हो, तो लोभ सीमा बन जाएगी। अरब रुपए आपके पास हों, तो भी | लगेगा कम हैं, क्योंकि दस अरब हो सकते थे। लोभ की कोई सीमा नहीं है। क्योंकि अलोभी व्यक्ति को सदा लगेगा कि जो भी पास है, वह भी ज्यादा है; वह भी न हो, तो भी कुछ हर्ज न था । अगर अलोभ पूरा हो जाए, तो आपकी सीमा मिट गई। तो लोभ आसुरी संपदा है, अलोभ दैवी संपदा है। क्रोधी व्यक्ति को प्रतिपल सीमा है; जहां देखेगा, वहीं से क्रोध पकड़ता है। जो करेगा, वहीं उपद्रव, झगड़ा और कलह खड़ा हो जाता है। अक्रोधी व्यक्ति के लिए कोई सीमा नहीं है। वह जहां से भी गुजरता है, वहीं मैत्री पैदा हो जाती है। तो क्रोध आसुरी हो | जाएगा, अक्रोध दैवी हो जाएगा।
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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