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________________ * गीता दर्शन भाग-7 * भयभीत व्यक्ति को हर पल खतरा है। आभूषणों को भी बंधन समझने लगेंगे, तभी मुक्ति के द्वार पर मैं एक गांव में रहता था। तो मेरे सामने एक सुनार रहता था, | पहली चोट पड़ती है। बहुत भयभीत आदमी। मैं अक्सर अपने दरवाजे पर बैठा रहता, तो | तो प्रत्येक व्यक्ति को निरीक्षण करते रहना चाहिए, उठते-बैठते, उसको बड़ी अड़चन होती। क्योंकि शाम को वह घर से निकलता, सुबह-सांझ, कौन-सी चीज मेरी सीमा बन रही है। सीमा के अकेला ही था, तो ताला लगाएगा; हिलाकर ताले को देखेगा | अतिरिक्त और कोई आपका दुश्मन नहीं है और असीम के चार बार। चंकि मैं सामने बैठा रहता. तो उसको बडा संकोच अतिरिक्त कोई और आपका मित्र नहीं है। तो अपने को असीम लगता। तो मैं आंख बंद कर लेता। वह हिलाकर देखेगा। फिर वह बनाने की चेष्टा ही ध्यान है; असीम बनाने की चेष्टा ही प्रार्थना है; दस कदम जाएगा, फिर लौटेगा। पसीना-पसीना हो जाएगा; | असीम बनाने की चेष्टा ही साधना है। क्योंकि उसको लग रहा है कि मैं देख रहा हूं। फिर आएगा, फिर शरीर बांधता है, तो साधक अपने को शरीर से मुक्त करता है। ताले को खटखटाएगा। तो वह निरंतर अनुभव करने की कोशिश करता है, क्या मैं शरीर मैंने उससे पूछा कि तू एक दफे इसको ठीक से खटखटाकर | | हूं? क्या सच में ही मैं शरीर हूं या शरीर से भिन्न हूं? देखकर क्यों नहीं जाता? कभी दो दफा, कभी तीन दफा! वह ___धीरे-धीरे, निरंतर चोट से यह अनुभव होना शुरू हो जाता है कि कहता, शक आ जाता है। दस कदम जाता हूं, फिर यह होता है, | मैं शरीर नहीं हैं। जिस दिन यह पता चलता है, मैं शरीर नहीं है, पता नहीं, मैंने ठीक से हिलाकर देखा कि नहीं देखा! | फिर शरीर जवान हो, बढा हो; जिंदा हो. मरे: स्वस्थ हो. अस्वस्थ अब यह भयभीत आदमी है। यह बाजार भी चला जाएगा, तो हो; तो बंधन नहीं बांधता। जो मैं नहीं हूं, उससे मेरे ऊपर कोई बंधन भी बाजार पहुंच नहीं पाएगा, इसका मन इसके ताले में अटका है।। नहीं है। और जैसे ही यह स्मरण आ गया कि मैं शरीर नहीं हूं, वैसे जो चार दफा लौटकर देखता है हिलाकर, वह कितनी ही बार देख | ही आपकी आत्मा इस खुले आकाश के साथ एक हो गई। फिर जाए, क्योंकि जो संदेह एक बार हिलाने के बाद आ गया, वह कोई परदा न रहा। दुबारा क्यों न आएगा? तिबारा क्यों न आएगा? मन बांधता है। तो साधक खोजता है, क्या मैं मन हूं? और यह जो भयभीत चित्त है, यह न रात सो सकता है, न दिन ठीक | | निरंतर एक ही तलाश में लगा रहता है कि मन से संबंध कैसे टूट से जग सकता है। यह चौबीस घंटे डरा हुआ है; सारा जगत जाए! वह संबंध टूट जाता है। क्योंकि जो हमारे भीतर साक्षी है, वह न तो शरीर है, न मन है, न भाव है। हम इन सब के साक्षी हो तो भय आसुरी संपदा है, बांधती है। अभय मुक्त करता है, तो | | सकते हैं। शरीर को भी देख सकते हैं अलग अपने से; मन को भी वह दैवी संपदा है। देख सकते हैं; विचार को भी देख सकते हैं। और जिसको हम देख मुक्त करने से केवल इतना ही अर्थ है कि जिससे आप पर सीमा सकते हैं, वह हमसे अलग हो गया, हम द्रष्टा हो गए। न पड़ती हो; आप खुले आकाश में पक्षी की तरह उड़ सकते हों। | | जिसको भी मैं देख सकता हूं-यह गणित है—वह मैं नहीं हूं। जिन-जिन चीजों से आपके चित्त पर सीमा पड़ती है, वहीं से मैं स्वयं को कभी भी नहीं देख सकता हूं। मैं सदा देखने वाला ही आपका कारागृह निर्मित होता है। और हम ऐसे पागल हैं कि हम रहूंगा। दृश्य बनने का कोई उपाय नहीं है; मैं द्रष्टा ही रहूंगा। द्रष्टा उनकी जडों को सींचते हैं. हम मजबत करते हैं। क्योंकि जो जंजीरें होना मेरा स्वभाव । आपको अपने सामने हैं, शायद हम सोचते हैं कि वे आभूषण हैं। हम उन्हें बचाते हैं। | रखकर देख नहीं सकता। सब देख लूंगा मैं, सिर्फ मेरा होना पीछे कोई अगर तोड़ना चाहे, तो हम नाराज होंगे। कोई हमारी जंजीरें रह जाएगा। और जब मैं सब देखी जाने वाली चीजों को छोड़ दूंगा, हटाना चाहे, तो हम उसे दुश्मन समझेंगे। क्योंकि उन्हें हमने जंजीरें सिर्फ वही बच रहेगा जो देखने वाला है, उस क्षण मेरी कोई सीमा कभी समझा नहीं: वे कीमती आभषण हैं, जो हमने बड़ी कठिनाई न होगी, उस क्षण मैं मुक्त हो जाऊंगा। से अर्जित किए हैं। ___बंधन वाला चित्त हर चीज से अपने को जोड़ता है। वह कहता जब तक कोई व्यक्ति अपनी जंजीरों को आभूषण समझता है, | है, यह शरीर मैं हूं; सीमा खड़ी कर ली। वह कहता है, यह धन मैं तब तक उसकी मुक्ति का द्वार बंद ही रहेगा। जब आप अपने ह:धन की सीमा खड़ी हो गई। अमीर ही नहीं बंधते. भिखमंगे भी दुश्मन है। पभावहादा 3401
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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