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________________ दैवी संपदा का अर्जन तरह खड़ा हो जाए, लेकिन अगर धन इसने लोभ के लिए छोड़ा है, स्वर्ग पाने को छोड़ा है, तो जिस संपदा का यह उपयोग कर रहा है, वह आसुरी है। आसुरी संपदा से स्वर्ग का कोई संबंध नहीं है। इसे ठीक से समझ लें। क्योंकि आपकी अच्छी से अच्छी चर्या के पीछे भी आसुरी संपदा हो सकती है, तो सब विकृत हो जाएगा। तो आप महल तो बनाएंगे, लेकिन रेत पर उसकी नींव होगी। और वह महल गिरेगा और आपको भी गिराएगा और डुबाएगा। मेरा निरंतर अनुभव है कि गलत तरह का आदमी बड़ी शीघ्रता से अच्छे काम करने में लग सकता है। जो पागलपन गलत के करने में था, वही अच्छे में लग सकता है। लेकिन उसकी मौलिक संपदा नहीं बदलती। उसका क्रोध, उसका लोभ, उसका मान नहीं बदलता; नया नियोजन हो जाता है। मौलिक स्वर पुराना ही रहता है। इसलिए इसके पहले कि साधक यात्रा पर निकले, उसे ठीक से पहचान लेना जरूरी है कि क्या आसुरी है, क्या दैवी है। स्पष्ट विभाजन भीतर साफ हो, तो यात्रा बड़ी सुगम हो जाती है। क्योंकि गलत साधन से ठीक साध्य तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। अकेली आपकी मरजी काफी नहीं है, आकांक्षा काफी नहीं है, प्रार्थना काफी नहीं है; ठीक साधन ही ठीक साध्य तक पहुंचाएगा। और ठीक साधन का अर्थ है, दैवी संपदा का उपयोग। दोनों संपदाएं प्रत्येक के पास हैं। उन्हें कमाना नहीं पड़ता, उन्हें हम लेकर ही पैदा होते हैं। जन्म के साथ ही हम दोनों संपदाएं लेकर पैदा होते हैं। और प्रत्येक व्यक्ति बराबर लेकर पैदा होता है। उस अर्थ में बिलकुल साम्यवाद है, उस अर्थ में जरा भी भेद नहीं है। गरीब से गरीब, अमीर से अमीर, बुद्धिमान या मूढ़, बराबर लेकर पैदा होते हैं। प्रकृति सबको समान देती है। और अगर इस जगत में इतने भेद दिखाई पड़ते हैं, तो हम उनका कैसा उपयोग करते हैं, इस पर निर्भर करते हैं। अगर इस जगत में साधु दिखाई पड़ता है और दुष्ट दिखाई पड़ता है, तो प्रकृति किसी को साधु नहीं बनाती और दुष्ट नहीं बनाती। परमात्मा बिलकुल कोरा चेक ही आपको देता है; उस पर कुछ आंकड़े लिखे नहीं होते। लिखना हम करते हैं; और जो हम लिखते हैं, वह हम बन जाते हैं। ध्यान रहे, प्रत्येक व्यक्ति बराबर संपदा लेकर पैदा होता है और दोनों संपदाएं बराबर लेकर पैदा होता है। इसलिए बच्चे इतने भोले मालूम पड़ते हैं। बच्चे के भोलेपन का राज यही है कि वह दोनों संपदाएं बराबर लेकर पैदा होता है। बराबर होने के कारण न तो वह साधु होता है, न असाधु होता है। दोनों संतुलित होती हैं। इसलिए बच्चा भोला होता है। बच्चे के भोलेपन में और साधु के भोलेपन में बड़ा फर्क है। | बच्चे का भोलापन अज्ञान से भरा हुआ है, साधु का भोलापन ज्ञान | से भरा हुआ है । साधु का भोलापन दैवी संपदा का पूरा उपयोग है। | बच्चे का भोलापन अनुपयोग है, अभी उसने कुछ उपयोग किया नहीं, अभी स्लेट खाली है। पर दोनों अक्षर लिखे जा सकते हैं, दोनों की क्षमता लेकर वह पैदा हुआ है। इसलिए परम साधु की आंखें बच्चों जैसी हो जाती हैं। एक पुनर्जन्म हो जाता है। फिर से सब सरल हो जाता है। लेकिन यह सरलता बड़ी गहरी है; बच्चे की सरलता बड़ी उथली है। बच्चे की सरलता दो विपरीत शक्तियों का संतुलन है; दोनों बराबर मात्रा में हैं। र अभी यात्रा नहीं हुई है। जल्दी ही यात्रा शुरू | होगी, और बच्चा एक तरफ झुकना शुरू हो जाएगा। जैसे-जैसे झुकेगा, वैसे-वैसे जटिलता बढ़ेगी। जैसे-जैसे झुकेगा, वैसे-वैसे भीतर कलह स्वभावतः टूटेगा, निर्मित होगा; दो हिस्से होने शुरू हो जाएंगे । और जो भी फिर बच्चा करेगा, दो आवाजें होंगी। चोरी | करेगा, तो दो आवाजें होंगी; किसी को दान देगा, तो दो आवाजें होंगी। दोनों संपदाएं पुकारेंगी। हर क्षण, जब भी आप कुछ निर्णय लेते हैं, दोनों शक्तियां आवाज देती हैं, कि मेरी तरफ । चोरी करने जाएं, तो कोई भीतर से कहता है, बुरा है; मत करो। और प्रार्थना करने जाएं, तो कोई भीतर से कहता है, क्यों फिजूल समय खराब कर रहे हो! इतनी देर में | कुछ कमा लेते! अच्छा करें, तो भीतर से कोई कहता है, रुको। बुरा करें, तो भीतर से कोई कहता है, रुको। भीतर दो आवाजें हैं। बच्चे की दोनों आवाजें अभी शांत हैं। अभी बच्चे ने चुनाव नहीं किया है। इसलिए बच्चा निर्दोष है। लेकिन यह निर्दोषता टिकेगी नहीं टूटेगी ही। क्योंकि आज नहीं कल ये आवाजें उठेंगी। आज नहीं कल बच्चा संसार में जाएगा, विकल्प खड़े होंगे, चुनाव करना | पड़ेगा। इसलिए बच्चा तो विकृत होगा। साधु या परम साधु का अर्थ यह है कि वह सारी विकृतियों को पार करके संतुलन को उपलब्ध हुआ है। यह संतुलन किसी अज्ञान | के कारण नहीं है; यह संतुलन परिपूर्ण जानकारी और परिपूर्ण होश में साधा गया है। 285 बच्चा भोला है, बिना अपने कारण । यह भोलापन कोई उपलब्धि नहीं है। इसलिए सभी बच्चे भोले हैं। यह जानकर हैरानी
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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