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* गीता दर्शन भाग-7 *
तथा इंद्रियों का दमन; यज्ञ, स्वाध्याय तथा तप एवं शरीर और | कहीं पहुंचूंगा भी नहीं। इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता।
___ इन दोनों का विभाजन बहुत जरूरी है। बहुत बार आप आसुरी कष्ण दो संपदाओं की बात करते हैं: दो तरह के धन मनष्य के संपदा से दिव्यता को खरीदने निकलते हैं। और न केवल आपको पास हैं। धन का, संपदा का अर्थ होता है, शक्ति। धन का अर्थ भ्रांति हो सकती है, आपको देखने वालों तक को भ्रांति हो सकती होता है, जिसे हम उपयोग में ला सकें, जिससे हम कुछ खरीद | सकें, जिससे हम कुछ पा सकें। धन का अर्थ है, विनिमय का इधर मेरा अनुभव है कि अगर कोई क्रोधी व्यक्ति है, तो उसके माध्यम, मीडियम आफ एक्सचेंज।।
क्रोध का उपयोग बड़ी शीघ्रता से साधना में किया जा सकता है। __ आपके खीसे में एक नोट पड़ा है। नोट एक प्रतीक है। नोट को क्रोधी व्यक्ति जल्दी से साधक हो जाता है। क्योंकि क्रोध का लक्षण न तो आप खा सकते हैं, न पी सकते हैं। लेकिन नोट से विनिमय है, नष्ट करना, तोड़ना, कब्जा करना, मालकियत जमाना। क्रोध हो सकता है। नोट से खाने की चीज खरीदी जा सकती है. पीने की | दूसरे पर निकलता है, अपने पर भी निकल सकता है; इससे कोई चीज खरीदी जा सकती है। नोट भोजन बन सकता है; नोट जहर फर्क नहीं पड़ता। आप दूसरे का सिर तोड़ सकते हैं, अपना सिर भी बन सकता है। नोट से कुछ खरीदा जा सकता है। नोट एक शक्ति | | दीवार में मार सकते हैं। क्रोधी व्यक्ति खुद को सताने में लग जाता है विनिमय की।
है। उसे वह साधना समझता है। __ कृष्ण कहते हैं, मनुष्य के पास दो तरह की संपदाएं हैं, विनिमय | तो कांटों पर सोए हुए लोग हैं; धूप में खड़े हुए लोग हैं; उपवास के दो माध्यम हैं। एक से आदमी खरीद सकता है और शैतान हो | करके भूख से मरते हुए लोग हैं। और आपको भी लगेगा कि बड़ी सकता है। और एक से आदमी खरीद सकता है और परमात्मा हो तपश्चर्या हो रही है। तपश्चर्या निश्चित हो रही है, लेकिन जानना सकता है।
जरूरी है कि तपश्चर्या के पीछे संपदा कौन-सी है? नहीं तो हम और जब तक उन दोनों संपदाओं को हम ठीक से न समझ लें, | जानते हैं दुर्वासा और उस तरह के ऋषियों को। उनकी तपश्चर्या तब तक बड़ी भ्रांति रहेगी। क्योंकि बहुत बार ऐसा होता है, जिस | बड़ी थी, फिर भी तपश्चर्या की मौलिक संपदा आसुरी रही होगी। संपदा से केवल शैतान खरीदा जा सकता है, उससे हम परमात्मा | | तप के पीछे जो अग्नि है, वह आसुरी रही होगी। इसलिए तप को खरीदने निकल पड़ते हैं। तब हम धोखा खाएंगे। तब जो भी हम | अभिशाप बन गया, तप हिंसा बन गया। खरीदकर लाएंगे, वह शैतान ही होगा।
__ अक्सर दिखाई पड़ेगा तपस्वी की आंखों में एक तरह का जैसे, जिस धन से हम संसार में सब कुछ खरीदते-बेचते हैं, | | अहंकार। तपस्वी में एक तरह की अकड़, न झुकने का भाव, स्वयं उसी धन से हम धर्म को भी खरीदने चल पड़ते हैं। तो कोई सोचता | को कुछ समझने की वृत्ति...। तप तो विनम्र करेगा, तप तो मिटा
दर बनाए, धर्मशाला बनाए, दान कर दे, तो धर्म देगा, तप तो सारी अकड़ को जला देगा। लेकिन दिखाई पड़ता है उपलब्ध हो जाएगा।
कि तपस्वी की अकड़ बढ़ती है, तो निश्चित ही संपदा आसरी लेकिन संसार जिससे खरीदा जाता है, उससे अध्यात्म के उपयोग की जा रही है। खरीदने का कोई उपाय नहीं। उनके मार्ग ही अलग हैं, बाजार अलग | एक आदमी धन इकट्ठा करता है, तो पागल की तरह इकट्ठा हैं। जो धन संसार में चलता है, वह धन अध्यात्म में नहीं चलता; करता है, जैसे जीवन बस धन इकट्ठा करने को है। फिर यह भी हो उस जगत से उसका कोई संबंध नहीं है।
| सकता है कि धन के इस लोभी को किसी दिन त्याग का खयाल अ कृष्ण कहते हैं, दो संपदाएं हैं। एक को वे कहते हैं, आसुरी | जाए। त्याग के खयाल का एक ही अर्थ होगा कि इसको त्याग का संपदा: और एक को वे कहते हैं. दैवी संपदा। दैवी संपदा से अर्थ लोभ पकड जाए। यह कहीं शास्त्र में पढ़ ले, किसी गरु से सन ले है, जिससे दिव्यता खरीदी जा सके।
कि जब तक धन न छोड़ेगा तब तक स्वर्ग न मिलेगा। तो यह सौदा तो ठीक से पहचान लेना जरूरी है कि मैं जिस संपदा का कर सकता है, यह धन छोड़ सकता है। लेकिन छोड़ेगा लोभ के उपयोग कर रहा हूं, उससे दिव्यता खरीदी भी जा सकती है? नहीं कारण ही। तो मैं श्रम भी करूंगा, भटकंगा भी, समय भी व्यय होगा और तो यह सारे धन को लात मारकर सड़क पर नग्न भिखारी की
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