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* दैवी संपदा का अर्जन *
जिस दिन आप भगवान हो जाएंगे, तो भी कोई साक्षात्कार नहीं | समग्रता से ही डूबना जरूरी है। जब तक कोई ऐसा न घुल जाए कि होगा; कोई परमात्मा की प्रतिमा नहीं होगी; आप ही परमात्मा हो | | अनुभूति में और स्वयं में रत्तीभर का फासला न हो। जब तक आप गए होंगे।
प्रार्थना न हो जाएं, तब तक प्रार्थना समझ में न आएगी। शैतान और भगवान आपकी संभावनाएं हैं। और जो बुरे से बुरा प्रार्थना कोई कृत्य नहीं है कि आपने कर लिया और मुक्त हुए। आदमी है, उसके भीतर परमात्मा की संभावना उतनी ही सतेज है, प्रार्थना तो एक जीवन की शैली है। एक बार जो प्रार्थना में गया, जितनी भले से भले आदमी के भीतर शैतान होने की संभावना है। वह गया; फिर लौटने का कोई मार्ग नहीं है। और गहरे तो जाना हो परम साधु एक क्षण में परम असाधु हो सकता है। विपरीत भी सही | | सकता है, लौटने की कोई सुविधा नहीं है। है, परम असाधु के लिए क्षणभर में क्रांति घटित हो सकती है। __ और जिस दिन प्रार्थना पूरी होगी, जिस दिन भक्ति परिपूर्ण होगी, क्योंकि दोनों बातें दूर नहीं हैं; हमारे भीतर मौजूद हैं।
| उस दिन आप भक्त नहीं होंगे. आप भक्ति होंगे। उस दिन आप जैसे हमारे दो हाथ हैं और जैसे हमारी दो आंखें हैं, ऐसे ही हमारे | | प्रार्थी नहीं होंगे, आप प्रार्थना ही होंगे। उस दिन आप ध्यानी नहीं दो यात्रा-पथ हैं। और उन दोनों के बीच हम हैं, हमारा फैलाव है। होंगे, आप ध्यान हो गए होंगे। उस दिन आपको योगी कहने का
दूसरी बात, शास्त्र को समझते समय ध्यान रखना जरूरी है कि कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि योग कोई क्रिया नहीं है; आप योग हो शास्त्र कोई विज्ञान नहीं है; शास्त्र तो काव्य है। वहां गणित नहीं है। गए होंगे। योग एक अनुभव है। और अनुभव ऐसा, जहां वहां प्रतीक हैं, उपमाएं हैं। और अगर आप गणित की तरह शास्त्र | अनुभोक्ता खो जाता है और एक हो जाता है। को पकड़ लेंगे, तो भ्रांति होगी, भटकेंगे। काव्य की तरह समझने गीता काव्य है। इसलिए एक-एक शब्द को, जैसे काव्य को हम की कोशिश करें।
| समझते हैं वैसे समझना होगा। कठोरता से नहीं, काट-पीट से नहीं, इसलिए इस ग्रंथ को श्रीमद्भगवद्गीता कहा है। यह एक गीत | | बड़ी श्रद्धा और बड़ी सहानुभूति से। एक दुश्मन की तरह नहीं, एक है भगवान का; यह एक काव्य है। टीकाकारों ने उसे विज्ञान प्रेमी की तरह। तो ही रहस्य खुलेगा और तो ही आप उस रहस्य के समझकर टीकाएं की हैं।
साथ आत्मसात हो पाएंगे। कविता और विज्ञान में कुछ बुनियादी फर्क है। विज्ञान में तथ्यों __जो भी कहा है, वे केवल प्रतीक हैं। उन प्रतीकों के पीछे बड़े लंबे की चर्चा होती है; शब्द बहुत महत्वपूर्ण नहीं होते; शब्द के पीछे अनुभव का रहस्य है। प्रतीक को आप याद कर ले सकते हैं, गीता तथ्य महत्वपूर्ण होता है। काव्य में तथ्यों की चर्चा नहीं होती; कंठस्थ हो सकती है। पर जो कंठ में है, उसका कोई भी मूल्य नहीं। काव्य में अनुभूतियों की चर्चा होती है। अनुभूतियां हाथ में पकड़ी क्योंकि कंठ शरीर का ही हिस्सा है। जब तक आत्मस्थ न हो जाए। नहीं जा सकतीं, तराजू पर तौली नहीं जा सकतीं, कसौटी पर कसी | | जब तक ऐसा न हो जाए कि आप गीता के अध्येता न रह जाएं, गीता नहीं जा सकतीं। .
कष्ण का वचन न रहे, बल्कि आपका वचन हो जाए। जब तक विज्ञान के तथ्य तो प्रयोगशाला में पकड़े जा सकते हैं। कोई कहे, | आपको ऐसा न लगने लगे कि कृष्ण मैं हो गया हूं, और जो बोला आग जलाती है, तो हाथ डालकर देखा जा सकता है। लेकिन | | जा रहा है, वह मेरी अंतर-अनुभूति की ध्वनि है; वह मैं ही हूं, वह प्रार्थना परमात्मा तक पहुंचा देती है; क्या करें? इस तथ्य को कैसे | | मेरा ही फैलाव है। तब तक गीता पराई रहेगी, तब तक दूरी रहेगी, पकड़ें? प्रार्थना को हाथ में पकड़ने का उपाय नहीं, जांचने का उपाय | | द्वैत बना रहेगा। और जो भी समझ होगी गीता की, वह बौद्धिक नहीं, कोई कसौटी नहीं।
| होगी। उससे आप पंडित तो हो सकते हैं, लेकिन प्रज्ञावान नहीं। लेकिन प्रार्थना है। प्रार्थना काव्य का सत्य है, अनुभूति का सत्य | अब इस सूत्र को समझने की कोशिश करें। है। अनुभूति के सत्य के संबंध में कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं। उसके उपरांत श्रीकृष्ण फिर बोले कि हे अर्जुन, दैवी संपदा जिन
एक, जब तक आपको अनुभव न हो, तब तक बात हवा में पुरुषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी संपदा प्राप्त है, उनके लक्षण रहेगी; तब तक कोई लाख सिर पटके और समझाए, आपकी समझ पृथक-पृथक कहता हूं। में आएगी नहीं। स्वाद मिले, तो ही कुछ बने; और स्वाद अकेली |
। दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं : अभय, अंतःकरण बुद्धि की बात नहीं है। स्वाद के लिए तो हृदय से, वरन अपनी की अच्छे प्रकार से शुद्धि, ज्ञान-योग में निरंतर दृढ़ स्थिति और दान
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