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श्रीमद्भगवद्गीता अथ षोडशोऽध्यायः
गीता दर्शन भाग-7
श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् । । १ ॥ उसके उपरांत श्रीकृष्ण भगवान फिर बोले कि हे अर्जुन, दैवी संपदा जिन पुरुषों को प्राप्त है तथा जिनको आसुरी संपदा प्राप्त है, उनके लक्षण पृथक-पृथक कहता हूं।
दैवी संपदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं: अभय, अंतःकरण की अच्छी प्रकार से शुद्धि, ज्ञान-योग में निरंतर स्थिति और दान तथा इंद्रियों का दमन, यज्ञ, दृ स्वाध्याय तथा तप एवं शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता ।
म
नुष्य एक दुविधा है, एक द्वैत । मनुष्य के पास इकहरा व्यक्तित्व नहीं है; जो भी है, बंटा हुआ और द्वंद्व में जैसे प्रकाश और अंधेरा साथ-साथ मनुष्य में जुड़े। हों । पशु और परमात्मा मनुष्य में साथ-साथ मौजूद हैं। मनुष्य जैसे एक सीढ़ी है, एक छोर नरक में और दूसरा छोर स्वर्ग में है; और यात्रा दोनों ओर हो सकती है। और प्रत्येक के हाथ में है कि यात्रा कहां होगी, कैसे होगी, क्या अंतिम परिणाम होगा।
यात्रा के रुख को किसी भी क्षण बदला भी जा सकता है, क्योंकि सिर्फ रुख बदलने की बात है, दिशा बदलने की बात है। नरक जाने में जो शक्ति लगती है, वही शक्ति स्वर्ग जाने के लिए कारण बन जाती है। बुरे होने में जितना श्रम उठाना पड़ता है, उतने ही श्रम से भलाई भी फलित हो जाती है। शैतान होना जितना आसान या कठिन, उतना ही संत होना भी आसान या कठिन है। और र एक बात ठीक से समझ लें, एक ही ऊर्जा दोनों दिशाओं में यात्रा करती है। ऐसा मत सोचें कि बुरा आदमी तपश्चर्या नहीं करता । बुरे आदमी की भी तपश्चर्या है, उसकी भी बड़ी साधना है; उसे भी बड़ा श्रम उठाना पड़ता है। शायद भले आदमी की साधना से उसकी साधना ज्यादा दुस्तर है, क्योंकि मार्ग में दोनों को कष्ट मिलते हैं। भले आदमी को अंत में आनंद भी मिलता है, जो बुरे आदमी को अंत में नहीं मिलता। मार्ग दोनों बराबर चलते हैं; भला
कहीं पहुंचता है, बुरा कहीं पहुंच भी नहीं पाता।
एक अर्थ में बुरे आदमी की साधना और भी कठिन है। जितनी बड़ी बुराई हो, उतना ही ज्यादा दुख है।
ऊर्जा एक, यात्रा की लंबाई एक, समय और जीवन का व्यय एक जैसा; फिर अंतर क्या है? अंतर केवल दिशा का है। इस जगह तक आने के लिए भी आप उसी रास्ते को चुनकर आए हैं, लौटते समय भी उसी रास्ते से लौटेंगे। उतना ही फासला होगा, सिर्फ आपकी दिशा बदली होगी। यहां आते समय मुंह मेरी तरफ था, जाते समय पीठ मेरी तरफ होगी। बस, इतना ही फर्क होगा। यात्रा वही की वही है।
जिसे हम शुभ कहते हैं, वह परमात्मा की तरफ मुंह करके चलने वाली यात्रा है। जिसे हम अशुभ कहते हैं, वह परमात्मा की तरफ पीठ करके चलने वाली यात्रा है। वे ही पैर चलते हैं, वे ही प्राण चलते हैं; जरा भी यात्रा में भेद नहीं है।
और यात्रा के ये जो दो पथ हैं; ये अगर आपके बाहर होते, तो बहुत आसानी हो जाती। ये दोनों पथ आपके भीतर हैं। चलने वाले भी आप हैं; जिस रास्ते से चलेंगे, वह भी आप हैं; और जिस मंजिल पर पहुंचेंगे, वह भी आप हैं।
आपके भीतर मूर्ति को बनाने वाला, मूर्ति बनने वाला पत्थर, मूर्ति को निखारने वाली छेनी, सभी कुछ आप हैं। इसलिए दायित्व भी बहुत गहन है । और दोष किसी और को दिया नहीं जा सकता। जो भी फल होगा, सिवाय आपके अकेले के कोई और उसके लिए जिम्मेवार नहीं है।
इसके पहले कि हम कृष्ण के सूत्र में प्रवेश करें, दो-तीन बातें खयाल में ले लें।
पहली बात, जिन नरकों की चर्चा है शास्त्रों में, जिन स्वर्गों का | उल्लेख है, वे दो भौगोलिक स्थितियां नहीं हैं, मानसिक दशाएं हैं। | नरक भी प्रतीक है, स्वर्ग भी प्रतीक है।
शास्त्रों में भगवान और शैतान की जो चर्चा है, वे केवल आपके ही दो छोर हैं। न तो शैतान कहीं खोजने से मिलेगा और न भगवान कहीं खोजने से मिलेगा। भगवान आपसे अलग होता, तो खोजने से मिल सकता था। शैतान भी अलग होता, तो खोजने से मिल जाता। वे दोनों ही आपकी संभावनाएं हैं। चाहें तो शैतान हो सकते हैं, कोई भी रुकावट नहीं है; और चाहें तो भगवान हो सकते हैं, कोई भी रुकावट नहीं है। और जिस दिन आप शैतान हो जाएंगे, तो कोई शैतान आपको नहीं मिलेगा; आप ही अपने को मिलेंगे।
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