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** शोषण या साधना**
परायण हुए विषय-भोगों की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक धनादिक बहुत-से पदार्थों को संग्रह करने की चेष्टा करते हैं।
और जो व्यक्ति भी अपने को नहीं खोज रहा है, वह जाने-अनजाने पदार्थ खोजेगा। खोज तो जारी रखनी ही पड़ेगी। खोज से बचना असंभव है। कुछ न कुछ तो आप खोजेंगे ही। अगर स्वयं को न खोजेंगे, तो कुछ और खोजेंगे। और जो स्वयं को नहीं खोजेगा, उसके पास सिवाय पदार्थों की खोज के कुछ भी नहीं बचता।
इस जगत में दो ही आयाम हैं। या तो मैं चेतना को खोजूं या पदार्थ को खोजूं । बस, दो ही इस जगत के तल हैं, पदार्थ है, चेतना है। अगर आप चेतना की खोज में नहीं हैं, तो क्या करेंगे? तो फिर पदार्थ का संग्रह। आपकी जीवन-ऊर्जा फिर धन इकट्ठा करने में, बड़े पद पर पहुंच जाने में, बड़ा साम्राज्य निर्मित करने में संलग्न हो जाएगी।
यह जो आसुरी संपदा वाला व्यक्ति है, वह फिर पदार्थ इकट्ठे करने में लग जाता है। और पदार्थ का संग्रह समझ लेने जैसा है। उसके कुछ आधारभूत नियम हैं।
पहला, जो व्यक्ति पदार्थ का संग्रह करने में लगा हो, वह न्याय-अन्याय का विचार नहीं कर सकता। क्योंकि पदार्थ किसी का भी नहीं है। जिस जमीन को आज आप अपना कह रहे हैं, कल वह किसी और की थी, परसों किसी और की थी। अगर आप यह बैठकर सोचें कि जो मेरा नहीं है, उस पर मैं कैसे कब्जा करूं! तो फिर आप पदार्थ पर कब्जा कर ही नहीं सकते।
इसलिए पदार्थ को इकट्ठा करने वाला तो येन केन प्रकारेण, कैसे भी हो, इकट्ठा करने में लग जाता है । और पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दूसरे से छीनना पड़ता है। परिग्रह शोषण के बिना संभव नहीं है। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दूसरे को वंचित करना पड़ता है। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो हिंसा करनी ही होगी, सूक्ष्म, स्थूल, लेकिन हिंसा करनी ही होगी। पदार्थ इकट्ठा करना हो, तो दान, दया और करुणा से अपने को बचाना होगा। चाहे चोरी करनी पड़े, चाहे भीख मांगनी पड़े, कुछ भी उपाय करना पड़े।
एक दिन एक स्टेशन पर मैं बैठा था, एक ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था। और एक भिखारी ने मुझसे आकर भीख मांगी। चेहरे से वह आदमी पढ़ा-लिखा, ढंग से सुसंस्कृत मालूम होता था । तो मैंने उससे कहा कि बैठो, कुछ अपने संबंध में मुझे बताओ। तो काफी प्रसन्न हो गया। मैं एक किताब रखे हुए बैठा पढ़ रहा था । ट्रेन लेट थी।
तो उसने कहा, आप किताब पढ़ रहे हैं, तो आपसे मैं बात कर
सकता हूं। मैं भी कभी एक लेखक था; मैंने भी एक किताब लिखी थी। मैंने उससे पूछा कि कौन-सी किताब लिखी थी ? उसने बताया कि जीविका कमाने के बीस ढंग। मैं थोड़ा चौंका और मैंने उससे पूछा कि फिर भी तुम भीख मांग रहे हो! उसने कहा, हां, क्योंकि यह इक्कीसवां ढंग है, जो मैंने बाद में खोजा। और वे बीस तो असफल हो जाएं, मगर यह इक्कीसवां कभी असफल नहीं होता। यह बिलकुल रामबाण है।
एक आदमी चोरी कर रहा है, वह भी जो दूसरे का है, छीन रहा है। एक आदमी भीख मांग रहा है, वह भी चोरी का ही एक ढंग है, लेकिन ज्यादा कुशल ढंग है। वह दूसरे को इस तरह से फांस रहा है कि दूसरा अगर न दे, तो आत्मग्लानि पैदा हो; अगर दे, तो दुख पाए।
तो आप यह मत सोचना कि जब भिखमंगा आपसे भीख मांगता है और आप उसे भीख दे देते हैं, तो वह समझता है कि आप बड़े | दानी हैं। वह यही समझता है कि वह होशियार था, आप बुद्ध थे। जब आप भीख नहीं देते और बच जाते हैं; तभी वह सोचता है कि यह भी आदमी कुशल है । उसके मन में इज्जत आपकी तभी होती है, जब आप नहीं देते। देते हैं, तब तो वह जानता है कि ठीक है। लेकिन वह स्थिति ऐसी पैदा करता है कि आपको अड़चन हो जाए, और दो पैसे के लिए उस अड़चन से निकलने को आप दो पैसा देना ही उचित समझेंगे।
चोर भी छीन रहा है, भिखारी भी छीन रहा है। जिसको हम व्यवसायी कहते हैं, जो दोनों के बीच है, वह भी छीन रहा है। और सबकी आकांक्षा एक है, संपदा का ढेर लग जाए।
संपदा का कितना भी ढेर लग जाए, अंततः वह संपदा आपकी | कब्र बनती है, अंततः सिवाय उसके नीचे दबकर मर जाने के और कुछ प्रयोजन नहीं है।
लेकिन एक नियम समझने का है कि मनुष्य की जीवन-ऊर्जा | बिना खोज के नहीं रह सकती। वह जीवन-ऊर्जा का स्वभाव है - खोज, सर्च | अगर आप कुछ भी नहीं खोज रहे हैं आंतरिक, | तो आपको बाहर कुछ न कुछ खोजना ही पड़ेगा।
यह खोज तो तभी बाहर की बंद हो सकती है, जब भीतर की खोज शुरू हो जाए। जैसे ही भीतर की तरफ चेतना मुड़नी शुरू होती है, बाहर की खोज अपने आप खो जाती है । खो जाती है इसलिए कि अब आपको बड़ी संपदा मिलनी शुरू हो गई। खो जाती है इसलिए कि अब असली संपदा मिलनी शुरू हो गई। खो जाती है
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