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जीवन की दिशा
को खोज रही है। संगीत में इतना रस आता है, क्योंकि संगीत कानों के द्वारा कामवासना की तृप्ति है। सौंदर्य को देखकर - सुंदर चित्र, सुबह का उगता सूरज, पक्षियों का आकाश में उड़ना, वृक्षों पर खिले फूल, एक सुंदर चेहरा, सुंदर आंखें, सुंदर रंग आनंदित करते मालूम पड़ते हैं, क्योंकि आंखों के द्वारा यह जगत के साथ संभोग है। आंख रूप को खोज रही है।
इसलिए कुरूप व्यक्ति दिख जाए, तो आपकी वासना सिकुड़ती है । कुरूप व्यक्ति सामने आ जाए, तो आप आंख फेरकर चल पड़ते हैं। सुंदर व्यक्ति सामने आ जाए, आप अपना होश खो देते हैं।
तो आप यह मत सोचना कि जननेंद्रिय से ही कामवासना प्रकट होती है; सभी इंद्रियों से प्रकट होती है। हाथ से जब आप कुछ छूना चाहते हैं, तो हाथ के माध्यम से कामवासना स्पर्श खोज रही है। यह पूरा शरीर कामेंद्रिय है। इसका रो-रोआं कामवासना से भरा है।
इसलिए जब तक शरीर से तादात्म्य न छूट जाए, तब तक कामवासना से छुटकारा नहीं है । और कुछ भी आप करते रहें, तो उससे सिर्फ समय व्यय होगा, शक्ति व्यय होगी और चित्त आत्मग्लानि से भरेगा। क्योंकि आप बार-बार तय करेंगे छोड़ने का, और छूटेगा नहीं। और जब बार-बार आप असफल होंगे, छोड़ न पाएंगे वासना को, तो धीरे-धीरे आपको आत्मग्लानि आएगी, आत्म-अविश्वास आएगा, और ऐसा लगेगा कि मैं किसी भी योग्य नहीं हूं। मैं बिलकुल पात्र नहीं हूं। मैं पापी हूं, अपराधी हूं।
और किसी भी व्यक्ति को, मैं पापी हूं, अपराधी हूं, ऐसी धारणा गहरी हो जाए, तो उसके जीवन में साधना-पथ अति कठिन हो जाता है। तो इस तरह के छोटे-मोटे प्रयोग करने में मत पड़ जाना ।
कामवासना से छूटा जा सकता है। लेकिन कामवासना जीवन-वासना का पर्यायवाची है। जब आप जीवन की वासना से छूटेंगे ... ।
इसलिए बुद्ध ने जगह-जगह कहा है, जीवेषणा जब तक है, तब तक मुक्ति नहीं है। जब तक तुम चाहते हो, मैं जीऊं !
बुद्ध के पास लोग पहुंचते हैं। वे कहते हैं कि मान लिया कि सब इच्छाएं छोड़ देंगे, शरीर छूट जाएगा, तो फिर हम मोक्ष में बचेंगे या नहीं? मैं रहूंगा न? आत्मा तो बचेगी, शरीर छूट जाएगा।
और बुद्ध कहते हैं कि यह फिर वही की वही बात है। तुम मिटना नहीं चाहते, तुम बचना ही चाहते हो । शरीर मिट जाए, तो भी तुम राजी हो । क्योंकि तुम देखते हो, शरीर तो मिटेगा, उसे बचाने का
कोई उपाय नहीं है। तो फिर आत्मा ही बच जाए।
इसलिए बुद्ध ने एक अनूठी बात कही कि कोई आत्मा नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं कि आत्मा नहीं है। यह बात सिर्फ इसलिए कही कि वे जो आत्मा के नाम से अपने को बचाना चाहते हैं, वे उस बचाने की बात को भी छोड़ दें।
जीवेषणा वासना है। मैं जीऊं, यही हमारा पागलपन है । और | मजा यह है कि जीकर हम कुछ पाते भी नहीं, लेकिन फिर भी जीना चाहते हैं। जीकर कुछ हाथ में भी नहीं आता, फिर भी कैसी ही | कठिनाई हो, तो भी जीना चाहते हैं। जीवन को छोड़ने को हम राजी नहीं होते।
इस सूत्र को याद रख लें, जो जीवन को छोड़ने को स्वेच्छा से राजी है, महाजीवन उसका हो जाता है। और जो जीवन को दरिद्र की तरह पकड़ता है, भिखारी की तरह, उसके हाथ में कुछ भी आता नहीं। सिर्फ जंजीरें ही उसके हाथ में आती हैं।
तीसरा प्रश्न: आपने कहा कि सृजनात्मकता दैवी स्वभाव है और विध्वंस व विनाश आसुरी हैं। लेकिन अस्तित्व में तो दोनों प्रक्रियाएं साथ-साथ चलती हैं। और सिर्फ युद्ध में ही विध्वंस होता हो, ऐसा नहीं है। दैवी विपदाएं कम विध्वंस नहीं करती हैं।
दै
वी संपदा सृजनात्मक है, इसका यह अर्थ नहीं कि जो सृजन करता है वह मिटाता नहीं। बनाना हो, तो मिटाना पड़ता है। अगर मूर्ति बनानी हो, तो पत्थर को मिटाना पड़ता है। अगर वृक्ष निर्मित करना हो, तो बीज को मिटाना पड़ता है। अगर परमात्मा को खोजना हो, तो अपने को मिटाना | पड़ता है। सृजनात्मकता भी बिना मिटाए तो नहीं होती। कुछ मिटता है, तो कुछ बनता है। मिटना बनने का ही प्रयोग है।
फिर फर्क क्या हुआ? क्योंकि दैवी संपदा भी मिटाती है, आसुरी संपदा भी मिटाती है। दोनों में फर्क क्या है?
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फर्क लक्ष्य का है। दैवी संपदा सदा ही बनाने को मिटाती है। | आसुरी संपदा सदा ही मिटाने को मिटाती है। आसुरी संपदा बनाती भी है, तो सिर्फ मिटाने को ।
फर्क यह है, आसुरी संपदा अगर बनाती भी दिखाई पड़ती हो,