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________________ * गीता दर्शन भाग-7 * न रूपमस्येह तथोपलभ्यते -तीन बातें समझनी जरूरी हैं। नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा। | एक तो आपसे मैंने कहा कि अपने माता-पिता को प्रेम अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलम् दें। प्रश्न जिन्होंने पूछा है, वे बच्चों से अपने लिए प्रेम असङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ।।३।। मांग रहे हैं। वहीं भूल हो गई है। ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं सभी मां-बाप बच्चों से प्रेम मांगते हैं। आपके मां-बाप ने भी यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः। | आपसे मांगा होगा और आप नहीं दे पाए। आप भी अपने बच्चों तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये से मांग रहे हैं और प्रेम पाने की संभावना बहुत कम है। आपके यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ।।४।। बच्चे भी अपने बच्चों से मांगेंगे। निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा जो मैंने कहा था, वह कहा था बच्चों के लिए मां-बाप को प्रेम अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः। देने के लिए। मां-बाप बच्चों से प्रेम मांगें, इसके लिए नहीं। और द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैः | प्रेम कभी मांगकर मिलता नहीं; और मांगकर मिल भी जाए, तो गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ।। ५।। | उसका कोई मूल्य नहीं है। जहां मांग पैदा होती है. वहीं प्रेम मर इस संसार-वृक्ष का रूप जैसा कहा है, वैसा यहां नहीं पाया जाता है। जाता है; क्योंकि न तो इसका आदि है और न अंत है तथा दूसरी बात, मां-बाप का प्रेम बच्चे के प्रति स्वाभाविक, सहज, न अच्छी प्रकार से स्थिति ही है। इसलिए इस अहंता, | प्राकृतिक है। जैसे नदी नीचे की तरफ बहती है, ऐसा प्रेम भी नीचे ममता और वासनारूप अति दृढ़ मूलों वाले संसाररूप पीपल की तरफ बहता है। बच्चे का प्रेम मां-बाप के प्रति बड़ी के वृक्ष को दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्र द्वारा काटकर, उसके अस्वाभाविक, बड़ी साधनागत घटना है। वह जैसे पानी को ऊपर उपरांत उस परम पद रूप परमेश्वर को अच्छी प्रकार चढ़ाना हो। खोजना चाहिए कि जिसमें गए हुए पुरुष फिर पीछे संसार में | तो गुरजिएफ का जो सूत्र था, वह यह था कि जो लोग अपने नहीं आते हैं। मां-बाप को प्रेम दे पाते हैं, उन्हें ही मैं मनुष्य कहता हूं; क्योंकि और जिस परमेश्वर से यह पुरातन संसार-वृक्ष की प्रवृत्ति अति कठिन बात है। विस्तार को प्राप्त हुई है, उस ही आदि पुरुष के मैं शरण हूं, सभी मां-बाप अपने बच्चों को प्रेम देते हैं, वह सहज बात है। इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके नष्ट हो गया है मान और मोह | उसके लिए मनुष्य होना भी जरूरी नहीं है; पशु भी उतना करते हैं। जिनका तथा जीत लिया है आसक्तिरूप दोष जिन्होंने और | मां-बाप से बच्चे की तरफ प्रेम का बहना नदी का नीचे उतरना है। परमात्मा के स्वरूप में है निरंतर स्थिति जिनकी तथा अच्छी | बच्चे मां-बाप को प्रेम दें, तो ऊर्ध्वगमन शुरू हुआ। अति कठिन प्रकार से नष्ट हो गई है कामना जिनकी, ऐसे वे सुख-दुख बात है। नामक द्वंद्वों से विमुक्त हुए ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद __मां-बाप सोचते हैं, हम इतना प्रेम बच्चों को देते हैं, बच्चों से को प्राप्त होते हैं। | हमें प्रेम क्यों नहीं मिलता? सीधी-सी बात उनकी स्मृति में नहीं है। उनका अपने मां-बाप के प्रति कैसा संबंध रहा? और अगर आप अपने मां-बाप को प्रेम नहीं दे पाए, तो आपके बच्चे भी कैसे दे सूत्र के पहले कुछ प्रश्न। पाएंगे? और जैसा आप अपने बच्चों को दे रहे हैं, आपके बच्चे पहला प्रश्नः आपने कल माता और पिता के बारे में | भी उनके बच्चों को देंगे, आपको क्यों देंगे? जो भी कहा, वह बहुत प्रिय था। माता-पिता बच्चों यह प्राकृतिक पशु में भी हो जाता है। इसलिए मां-बाप इसमें को प्रेम देते हैं, लेकिन बच्चे माता-पिता को प्रेम क्यों | बहुत गौरव अनुभव म करें कि वे बच्चों को प्रेम करते हैं। यह सीधी नहीं दे पाते हैं? | स्वाभाविक. प्राकतिक घटना है। मां-बाप बच्चों को प्रेम न करें. तो अप्राकृतिक घटना होगी। बच्चे मां-बाप को प्रेम करें, तो 182
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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