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________________ * असंग साक्षी * नहीं था। राजनीति से मेरा कोई भी लगाव नहीं है; रत्तीभर भी मुझे कर रहे हैं। वह रजोगुण को जलाने का एक ही उपाय था, कि वह कोई रस नहीं है। | भभक कर जले। वह पूरा का पूरा अंगारा बन जाए, तो जल्दी राख लेकिन जब सारा मल्क एक विक्षिप्तता में पड़ा हो, सारी हो जाएगा। जितने धीरे-धीरे जलेगा, उतना समय लेगा। इकट्ठा मनुष्यता, और अगर आपको भी दौड़ना हो उस मनुष्यता के बीच, | | जल जाए, पूर्णता से जले, तो जल्दी राख हो जाएगा। तो खेल के लिए ही सही, आपको कुछ उपद्रव अपने आस-पास | अब वह जल चुका है। और अब जैसे सांझ को सूरज सिकोड़ ले निर्मित कर लेने चाहिए, कुछ विवाद खड़े कर लेने चाहिए। तो उस | | अपनी सारी किरणों को और जैसे सांझ को मछुआ अपने जाल को रजोगुण की यात्रा में ढेर विवाद खड़े हुए, और मैंने उनका काफी | | निकाल ले, ऐसे मैं सब सिकोड़ लूंगा। सिकोड़ लूंगा, कहना ठीक सुख लिया। | नहीं है। ऐसा सब सिकुड़ जाएगा। क्योंकि तीसरा तत्व शुरू होगा। अगर कर्म की विक्षिप्तता से वे पैदा होते, तो उनसे दुख पैदा इसलिए आप देख भी रहे हैं कि मैं धीरे-धीरे सब हाथ हटाता होता। लेकिन सिर्फ रजोगुण के निकास की भांति, अभिव्यक्ति की | जा रहा हूं। आपकी जगह पचास हजार लोग सुन सकते थे, लेकिन भांति वे थे, तो उन सबमें खेल था और रस था। वे विवाद एक | | मैं राजी हूं कि पचास लोग सुनें। पचास से पांच पर राजी हो अभिनय से ज्यादा नहीं थे। जाऊंगा। बोलने से न बोलने पर राजी हो जाऊंगा। __पंजाब में पंजाब के एक बड़े वेदांती थे, हरिगिरी जी महाराज। ___ तो जैसे-जैसे रजोगुण पूरा फिंक जाता है और सत्व की प्रक्रिया उनसे वेदांत पर एक बड़ा विवाद हुआ। मेरे लिए एक खेल था, शुरू होती है, वैसे-वैसे सभी क्रियाएं फिर शून्य हो जाएंगी। उनके लिए गंभीरता थी। क्योंकि उनके सिद्धांत का सवाल था। वे | तमोगण में भी सारी क्रियाएं शन्य होती हैं। लेकिन वह शन्यता करीब-करीब विक्षिप्त हो जाते थे। निद्रा जैसी होती है। सत्वगुण में भी सारी क्रियाएं शून्य हो जाती हैं। पुरी के शंकराचार्य से पटना में विवाद हो गया। मेरे लिए खेल | | लेकिन वह शून्यता जागरूकता जैसी होती है। तमस और सत्व में था, उनके लिए पूरे व्यवसाय का सवाल था। वे इतने विक्षिप्त हो | एक समानता है कि दोनों शून्य होंगे। तमस का रूप निद्रा जैसा गए, इतने क्रोध में आ गए कि मंच से गिरते-गिरते बचे। सारा शरीर | होगा; सत्व का रूप जागरण जैसा होगा। कंपित हो गया। - और इसी को मैं जीवन की ठीक प्रक्रिया मानता हूं कि जीवन का पर रजोगुण को पूरा निकल जाने देना जरूरी है। बहुत मित्रों ने | प्रथम चरण तमस में गुजरे, द्वितीय चरण रज में गुजरे, तृतीय चरण मुझे रोकना चाहा, पर मैं अपनी तरफ से नहीं रुकना चाहता था। | सत्व में गुजरे। और तीनों चरण में आप अपने को अलग रखने की रजोगुण ही झर जाए, उसकी निर्जरा हो जाए, तो ही रुगा। कोशिश में लगे रहें, तो आप साधना में हैं। और तीनों चरणों में आप महीने में तीन सप्ताह मैं ट्रेन में ही बैठा हुआ था। सुबह बंबई जानते रहें कि यह मैं नहीं कर रहा हूं, ये गुण कर रहे हैं। यह मुझसे था, तो रात कलकत्ता था, तो दूसरे दिन अमृतसर था, तो चौथे दिन | नहीं हो रहा है; मैं सिर्फ देखने वाला हूं; मैं सिर्फ साक्षी हूं। जब लुधियाना था, दिल्ली था। पूरा मुल्क जैसे एक भ्रमण के लिए क्षेत्र | | आलस्य हो तब भी, जब कर्म हो तब भी, जब सत्व हो तब भी। मैं था। और जगह-जगह उपद्रव स्वाभाविक थे, क्योंकि जब आप | | सिर्फ देखने वाला हूं, मैं मात्र द्रष्टा हूं। ऐसी प्रतीति बनी रहे, तो तीनों कर्म करेंगे, तब उपद्रव बिलकुल स्वाभाविक है। क्योंकि कर्म के | गुण चुक जाएंगे अपने से और आप गुणातीत में ठहर जाएंगे। प्रतिकर्म पैदा होते हैं, क्रिया से प्रतिक्रिया जन्मती है। ___ पहुंचना है चौथे में, तीनों के पार। जिसको चौथा कहना ठीक __ आलस्य के दिनों में मैं बोलता नहीं था, या न के बराबर बोलता नहीं; जहां कोई भी नहीं है; जहां तीनों नहीं हैं। था। कोई बहुत पूछे, तो थोड़ा बोलता था। रजोगुण के दिनों में कोई | __ कृष्ण ने तीनों को इकट्ठा व्यक्त किया है। मैंने तीनों को न भी पूछे, तो बोलता था। लोगों को ढूंढ़कर बोलता था; और | | अलग-अलग एक-एक परिधि में बांटकर उपयोग किया है। बोलने में एक आग थी। मेरे पास अब भी लोग आते हैं, वे कहते | इसलिए मेरी बातों में भी असंगति मिलेगी। जो मैंने तमस के क्षणों हैं, अब आप वैसा नहीं बोलते कि दिल थर्रा जाता था। एक जोश, | में कहा है और जीया है, वह मेरे रजस के क्षणों से उसका कोई मेल अंगार था। | नहीं बैठेगा। और जो मैंने रजस के क्षणों में कहा है, वह मेरे सत्व वह अंगार मेरा नहीं था। वह उस गुण का था, जिसकी हम चर्चा | के क्षणों में कही गई बातों से उसका बहुत विरोध हो जाएगा। [107]
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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