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*गीता दर्शन भाग-7*
सकती है।
इसलिए जब कोई मेरे पूरे विचार पर सोचने बैठेगा, तो उसे तीन | | जाएगा, दूसरी हालत में आप हंसते रह जाएंगे। हिस्सों में तोड़ देना पड़ेगा। और तीनों के बीच बड़े विरोध होंगे। शरीर तो दोनों का छूटेगा। लेकिन जिसने अपने को शरीर ही होना ही चाहिए। क्योंकि तीन अलग गुणों के माध्यम से वे बातें | समझा हो, वह रोएगा, छाती पीटेगा। और जिसने जाना हो कि मैं प्रकट हुई हैं। और तीनों के बीच संगति असंभव होगी। | शरीर का देखने वाला हूं, शरीर से भिन्न और अलग हूं, वह शरीर
अगर मेरे व्यक्तित्व में संगति खोजनी हो, तो वह चौथे में को जाते हुए देखेगा, जैसे एक और वस्त्र छिन गया, जराजीर्ण हो मिलेगी, वह जो गुणातीत है। इन तीन में संगति नहीं मिल सकेगी। गया था, नए वस्त्र की खोज में पुराने को छोड़ दिया। इन तीनों के पीछे जो छिपा साक्षी-भाव है, उसमें ही संगति मिल तीनों के फल होंगे। लेकिन साधक के लिए, जो उन तीनों के
| प्रति जागरूकता साध रहा है....।
और जागरूकता तो सभी को साधनी पड़ेगी, चाहे आप किसी
गुण में हों। चाहे आपके हाथ पर जंजीरें लोहे की हों, चाहे आपके दूसरा प्रश्नः सात्विक कर्म का फल सुख, ज्ञान एवं हाथ पर जंजीरें सोने की हों, चाहे आपके हाथ पर जंजीरें हीरे से मढ़ी. वैराग्य कहा है। रजस एवं तमस कर्म का फल दुख हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जंजीर खोलने की कला तो एक ही और अज्ञान कहा है। यदि रजस और तमस गुणों को | होगी। वह सोने की है कि लोहे की, इससे कोई भेद नहीं पड़ता। साधना का आधार बनाया जाए, तो उनके फलों में आपके चारों तरफ दुख बंधा है कि सुख, इससे कोई फर्क नहीं क्या भिन्नता आ जाएगी?
पड़ता। खोलने की कुंजी तो एक ही है, और वह कुंजी है, साक्षी-भाव। चाहे दुख हो तो, चाहे सुख हो तो, आपको अपने को
दूर खड़े होकर देखने की कला में निष्णात करना है। अभ्यास एक T5 लों में तो कोई भिन्नता न आएगी। फल-भोक्ता में | है, कि मैं अलग हूं। कुछ भी घट रहा हो, वह घटना अब स कुछ पा भिन्नता आएगी। फल तो वही होंगे। अगर सात्विक | | | भी हो, उस घटना से मैं दूर खड़ा देख रहा हूं। मैं दर्शक हूं।
कर्म का फल सुख है, तो सुख ही होगा, चाहे आप जागरूक हों और न हों। अगर जागरूक होंगे, तो आप जानेंगे कि सुख मुझ से दूर और अलग है, मेरे आस-पास है। मैं सुख नहीं | तीसरा प्रश्न : कल आपने समझाया कि सात्विक कर्मों हूं, मैं सुख को देखने वाला हूं।
का परिणाम है, सहज वैराग्य। जो व्यक्ति रजस या चाहे रजस का फल हो दुख, फल तो वही होगा। संत को भी | तमस के माध्यम से साधना कर रहा है, क्या उसका वही फल होगा, असंत को भी वही फल होगा। लेकिन असंत भी वैराग्य सहज ही होगा? क्या वैराग्य के समझेगा कि मैं दुख हूं और संत समझेगा कि मैं दुख का द्रष्टा हूं। प्रकटीकरण में भी भिन्नता आ जाएगी? वहां भेद होगा।
इसलिए बड़े मजे की बात है। दुख का फल तो बराबर होगा, लेकिन संत दुखी नहीं हो पाएगा और असंत दुखी होगा। और दुख | नहीं , वैराग्य हमेशा सहज होगा। सहज का मतलब दोनों को होगा। जो दुख के साथ जुड़ जाएगा, तादात्म्य कर लेगा, | आइडेंटिटी बना लेगा, वह दुखी होगा।
वैराग्य को ओढ़ा नहीं जा सकता, जबरदस्ती थोपा जैसे आपका कपड़ा कोई छीन ले। और आप अगर सोचते हों | नहीं जा सकता। वैराग्य जब भी होगा, सहज होगा। और अगर कि कपड़ा ही मैं हूं, तो कपड़े के साथ आपकी आत्मा जा रही है। । सहज न हो, तो वह वैराग्य सिर्फ ऊपर-ऊपर होगा, भीतर उसके
और आप सोचते हों कि कपड़ा सिर्फ मेरे ऊपर है; कोई ले भी गया, राग होगा। नाम वैराग्य होगा, लेकिन नए ढंग का राग होगा। तो कपड़ा ही ले गया है, मैं नहीं चला गया हूं। कपड़ा दोनों हालत | आप एक चीज को छोड़ सकते हैं दूसरी चीज को पकड़ने के में चला जाएगा। लेकिन एक हालत में आपको गहन पीड़ा से भर लिए। लेकिन यह वैराग्य नहीं है। वैराग्य का मतलब है, छोड़ना,
01 समझ लें।
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