SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * ऊर्ध्वगमन और अधोगमन दूसरे की वास्तविक स्थिति हमें दिखाई नहीं पड़ती, हमारा ही मन उस पर छा जाता है, हमारी छाया ही उसे आच्छादित कर लेती है । फिर जो हम देखते हैं, वह अपने ही मन का फैलाव है। दूसरा व्यक्ति जैसे परदा बन जाता है। हमारा ही चित्त उस परदे पर हमें दिखाई पड़ता है। दूसरे में हम स्वयं को ही देखते हैं। दूसरा जैसे दर्पण है। तो अगर लगता हो कि सारी पृथ्वी असुरों से भरी है, तो जानना कि आपका चित्त आसुरी संपदा से भरा है। इसके अतिरिक्त यह बान किसी और चीज का लक्षण नहीं है। इससे पृथ्वी के संबंध में कोई खबर नहीं मिलती, सिर्फ आपके संबंध में खबर मिलती है; आपकी आंखों के संबंध में खबर मिलती है; आंखों के पीछे छिपे मन के संबंध में खबर मिलती है। और अगर आपको कभी-कभी कोई एकाध देव भी दिखाई पड़ जाता है, तो उसका केवल इतना ही अर्थ है कि आपके भीतर की दैवी संपदा भी थोड़ी-बहुत सक्रिय है। वह बिलकुल मर नहीं गई है; जीवंत है। उसकी भी कोई एक किरण इस अंधेरे में मौजूद है, इसलिए कभी-कभी आप झलक दूसरे में उसकी भी देख लेते हैं। जैसे-जैसे आप दैवी संपदा में लीन होंगे, वैसे-वैसे जगत आपको दिव्य मालूम पड़ने लगेगा। लेकिन ध्यान रहे, योग की जो परम दशा है, वह दोनों ही भावनाओं से मुक्त हो जाना है। जिस दिन जगत आपको उसकी वस्तुस्थिति में दिखाई पड़े, जिस दिन आपके भीतर से कोई भाव जगत पर न फैले, उस दिन आपको अनूठा अनुभव होगा कि जगत में सभी चीजें संतुलित हैं। यहां बुरा और भला बराबर है। यहां पापी और पुण्यात्मा बराबर हैं। यहां ज्ञानी और अज्ञानी बराबर हैं। उनकी मात्रा सदा ही बराबर है। उस मात्रा में जरा भी विचलन हुआ कि जगत नष्ट हो जाता है। वह संतुलन बना रहता है। जिस दिन आपको ऐसा दिखाई पड़ जाएगा, यह संतुलन की अवस्था अनुभव में आ जाएगी, उस दिन न तो आप जगत को बुरा कहेंगे, न भला कहेंगे। उस दिन बुरे आदमी को भी बुरा नहीं कहेंगे, भले आदमी को भी भला नहीं कहेंगे। उस दिन आप कहेंगे, बुरा और भला एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उस दिन आप बुरे को मिटाना नहीं चाहेंगे, भले को बचाना नहीं चाहेंगे। क्योंकि उस दिन आप जानेंगे कि बुरा मिटे, तो भला भी मिटता है; भला बचे, तो बुरा भी बचता है। लाओत्से ने कहा है, जब दुनिया धार्मिक थी, तो न कोई भला आदमी था, न कोई बुरा आदमी था। जब आप भी परम धार्मिक होंगे, तो न कोई बुरा रह जाएगा, न कोई भला रह जाएगा। तब बुरा और भला एक जागतिक संयोग होगा। जैसे हाइड्रोजन और आक्सीजन से मिलकर पानी बनता है, वैसे बुरे और भले से मिलकर संसार बनता है। और वह मात्रा सदा बराबर है। जगत एक संतुलन है। पर हमें संतुलन दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि हम संतुलित नहीं हैं। हम साक्षी होंगे, तो संतुलित होंगे। तो जीवन में तीन दिशाएं हैं। एक दिशा है कि अपने भीतर जो आसुरी संपदा है, उसको हम अपना स्वभाव समझ लें, तो फिर सारा जगत बुरा है। दूसरी संभावना है कि हमारे भीतर जो दैवी संपदा है, हम उसके साथ अपने को एक समझ लें, तो सारा संसार भला है। और एक तीसरी परम संभावना है कि हम इन दोनों गुणों से, इस द्वैत से अपने को मुक्त कर लें और साक्षी हो जाएं, तो फिर | जगत बुरे और भले का संयोग है, रात और दिन का जोड़ है, अंधेरे और प्रकाश का मेल है, ठंडे और गरम का संतुलन है । और जिस दिन आप इस तरह चुनावरहित, विकल्परहित भीतर दोनों संपदाओं में से किसी को भी न चुनेंगे, उसी दिन आपकी परम मुक्ति है। हमारे पास तीन शब्द हैं। एक शब्द नरक है। नरक का अर्थ है, जिसने अपने को आसुरी संपदा से एक कर लिया। दूसरा शब्द स्वर्ग है। स्वर्ग का अर्थ है, जिसने अपने को दैवी संपदा से एक कर लिया । और तीसरा शब्द मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है, जिसने अपने को दोनों संपदाओं से मुक्त कर लिया। देव भी मुक्त नहीं है, वह भी बंधा है। उसके बंधन प्रीतिकर हैं। उसकी जंजीरें सोने की हैं। उसका कारागृह बहुमूल्य है; उसका कारागृह बहुत सजा है। उसका जीवन आभूषणों से लदा है। लेकिन | लदा है, वह निर्धार नहीं है। बुरा आदमी लोहे की जंजीरों से बंधा है; अच्छा आदमी सोने की जंजीरों से बंधा है। लेकिन बंधन में जरा भी कमी नहीं है। 369 सिर्फ भारत ने एक अनूठे शब्द का प्रयोग किया है, मोक्ष | दुनिया के किसी दूसरे धर्म ने, दुनिया की किसी जाति ने मोक्ष की कल्पना नहीं की है। स्वर्ग और नरक सारी दुनिया को पता हैं। | इस्लाम या ईसाइयत या यहूदी, स्वर्ग और नरक से परिचित हैं। मोक्ष की धारणा एकांतिक रूप से भारतीय है। मोक्ष का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति, जो नरक से तो मुक्त हुआ ही, स्वर्ग से भी मुक्त है। जिसने बुरे को तो छोड़ा ही, भले को भी छोड़ा। इसे समझना बहुत कठिन है, क्योंकि भला हमें लगता है, छोड़ने
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy