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* गीता दर्शन भाग-7 *
इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् । के दो चाक हैं। इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् ।। १३ ।। संसार चल रहा है, चलता रहा है, चलता रहेगा। उसके दोनों असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।
चाक बराबर हैं, इसीलिए। लेकिन फिर भी प्रश्न सार्थक है। क्योंकि ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ।। १४ ।। साधारणतः देखने पर हमें यही दिखाई पड़ता है कि असुरों से तो
आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया। पृथ्वी भरी है; देव कहां हैं? यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ।। १५ ।। समझने की कोशिश करें।
अनेकवित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः। हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हम हैं। पृथ्वी असुरों से भरी प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेशुचौ ।। १६ ।।। | दिखाई पड़ती है, वह हमारी अपनी आसुरी वृत्ति का दर्शन है। देव और उन आसुरी पुरुषों के विचार इस प्रकार के होते हैं, को तो हम पहचान भी नहीं सकते। वह दिखाई भी पड़े, मौजूद भी कि मैंने आज यह तो पाया है और इस मनोरथ को प्राप्त हो, तो भी हम उसे पहचान नहीं सकते। क्योंकि जब तक दिव्यता होऊंगा तथा मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह की थोड़ी झलक हमारे भीतर न जगी हो, तब तक दूसरे के भीतर . - भविष्य में और अधिक होवेगा।
जागे हुए देव से हमारा कोई संबंध निर्मित नहीं होता। तथा वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और दूसरे शत्रुओं को भी जो हमें दिखाई पड़ता है, वह हमारी ही आंखों का फैलाव है, मैं मारूंगा। मैं ईश्वर अर्थात ऐश्वर्यवान हूं और ऐश्वर्य को वह हमारी दृष्टि का ही फैलाव है। हमें वह नहीं दिखाई पड़ता जो भोगने वाला हूं और मैं सब सिद्धियों से युक्त एवं बलवान है, बल्कि वही दिखाई पड़ता है जो हम हैं। और सुखी हूं।
दैवी संपदा से भरे व्यक्ति को इस जगत में असुर कम और मैं बड़ा धनवान और बड़े कुटुंब वाला हूं; मेरे समान दूसरा देवता ज्यादा दिखाई पड़ने लगते हैं। संत को बुरा आदमी दिखाई
कौन है। मैं यज्ञ कलंगा. दान देऊंगा.हर्ष को प्राप्त पड़ना बंद हो जाता है। हमें जो बरा दिखाई पड़ता है, संत को होऊंगा-इस प्रकार के अज्ञान से आसुरी मनुष्य मोहित हैं। | वही...उसकी व्याख्या बदल जाती है। और व्याख्या के अनुसार
वे अनेक प्रकार से भ्रमित हुए चित्त वाले अज्ञानीजन | जो हमें दिखाई पड़ता है, उसका रूप बदल जाता है। मोहरूप जाल में फंसे हुए एवं विषय-भोगों में अत्यंत लेकिन संत को दिखाई पड़ने लगता है, सभी भले हैं। असंत को आसक्त हुए महान अपवित्र नरक में गिरते हैं। दिखाई पड़ता है, सभी बुरे हैं। दोनों ही बातें अधूरी हैं। और जब
आप परिपूर्ण साक्षी-भाव को उपलब्ध होते हैं, जहां न तो आप
अपने को जोड़ते हैं साधुता से, न जोड़ते हैं असाधुता से, जहां बुरे पहले कुछ प्रश्न।
| और भले दोनों से आप पृथक हो जाते हैं, उस दिन आपको दिखाई पहला प्रश्नः गीता के इस अध्याय में देवों और असुरों पड़ता है कि जगत में दोनों बराबर हैं। और बराबर हुए बिना जगत के गुण बताए गए। हम असुरों से तो धरती पटी पड़ी चल नहीं सकता, क्षणभर भी नहीं जी सकता। है, किंतु देव तो करोड़ों में कोई एक होता है। ऐसा तो यदि हमें दिखाई पड़ती है पृथ्वी असुरों से भरी, तो इसका क्यों है?
केवल एक ही अर्थ लेना कि हम आसुरी संपदा में जी रहे हैं। इसका दूसरा कोई और अर्थ नहीं है। पृथ्वी से इसका कोई संबंध नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन ने एक रात भांग पी ली। भांग के नशे में जमीन 14वन में एक अनिवार्य संतुलन है। जितनी यहां बुराई | घूमती हुई दिखाई पड़ने लगी। तो सुबह उठकर जब वह होश में आ UII है, उतनी ही यहां भलाई है। जितना यहां अंधेरा है, | गया, उसने कहा, मैं समझ गया। जिस आदमी ने यह सिद्ध किया
उतना ही यहां प्रकाश है। जितना यहां जीवन है, उतनी | कि पृथ्वी घूमती है, वह भंगेड़ी रहा होगा! ही यहां मृत्यु है। दोनों में से कोई भी कम-ज्यादा नहीं हो सकते।। ___ हमारा अनुभव ही हम फैलाते हैं, दूसरा कोई उपाय भी नहीं है। दोनों की बराबर मात्रा चाहिए, तो ही जीवन चल पाता है। वे गाड़ी जो हमारे भीतर है, उसके माध्यम से ही हम दूसरे को देखते हैं। तो
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