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* गीता दर्शन भाग-7
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से-और वह बदल दे। परमात्मा एक नियम है, व्यक्ति नहीं। पहुंच जाता है। इसको थोड़ा समझ लें।
जगत के नियम को समझकर उसके अनुकूल चलने का नाम परमात्मा एक व्यवस्था है, व्यक्ति नहीं। तो आग में कोई आदमी धर्म है। हाथ डाले, तो आग जलाएगी। आग जलाने को उत्सुक नहीं है। बुद्ध ने धर्म शब्द का अर्थ ही नियम किया है, दि लॉ। जब बुद्ध आग इस आदमी को जलाने के लिए पीछे नहीं दौड़ती। लेकिन यह कहते हैं, धम्मं शरणं गच्छामि; तो वह कहते हैं, धर्म की शरण आदमी आग में हाथ डालता है, तो आग जलाती है। क्योंकि आग | | जाओ; तो उसका यही अर्थ है कि नियम की शरण जाओ। और का स्वभाव जलाना है, वह उसका नियम है। अगर हम आग से नियम के अनुकूल चलोगे, तो तुम मुक्त हो जाओगे। नियम के पूछे, तो वह कहेगी, जो मुझमें हाथ डालेगा, उसे मैं जलाऊंगी। प्रतिकूल चलोगे, तो अपने हाथ से बंधते चले जाओगे। नियम के आग चूंकि बोलती नहीं, इसलिए हमें खयाल में नहीं है। | विपरीत जो जाएगा, वह दुख पाएगा। नियम के अनुकूल जो
कृष्ण परमात्मा की तरफ से बोल रहे हैं। वह जो जागतिक नियम | जाएगा, वह आनंद को उपलब्ध हो जाता है। है, युनिवर्सल लॉ है, वह जो जीवन का आधार-स्तंभ है, उसकी __इसलिए हे अर्जुन, वे मूढ़ पुरुष जन्म-जन्म में आसुरी योनि को तरफ से बोल रहे हैं। वह कहते हैं, जो व्यक्ति ऐसा कर्म करेगा, प्राप्त हुए मेरे को न प्राप्त होकर उससे भी अति नीची गति को ही इस तरह की दृष्टि और धारणा रखेगा, ऐसा पाप में डूबेगा, उसे मैं प्राप्त होते हैं। गिराता हूं। गिराने का कुल मतलब इतना ही है, ऐसा करने से वह जब कोई व्यक्ति गिरना शुरू हो जाता है, तो वह मोमेंटम अपने आप गिरता है; कोई परमात्मा उसको धक्का नहीं देता। | | पकड़ता है, गिरने में भी गति आ जाती है। आप कभी सोचें, अगर धक्का देने की कोई जरूरत नहीं है। वह ऐसा करता है, इसलिए आप एक झूठ बोलें, तो फिर दूसरा और तीसरा और चौथा...। गिरता है।
और दूसरा पहले से बड़ा, और तीसरा दूसरे से बड़ा, क्योंकि फिर इसलिए भारत की जो गहरी से गहरी खोज है, वह कर्म का और बड़ा झूठ बोलना जरूरी है पिछले झूठ को सम्हालने के लिए। सिद्धांत है। यह खोज इतनी गहरी है कि जैनों और बौद्धों ने फिर एक गति आ जाती है। फिर उस गति का कोई अंत नहीं है। परमात्मा को विदा ही कर दिया। उन्होंने कहा, यह सिद्धांत ही काफी एक पाप करें, फिर दूसरा, फिर तीसरा, और बड़ा, और बड़ा; है। परमात्मा को बीच में लाने की कोई जरूरत भी नहीं है। जैनों | | तब आप अपने ही हाथ से गिरते चले जाते हैं। और अगर आप
और बौद्धों ने परमात्मा को इनकार ही कर दिया कि कोई जरूरत ही | | गिरना चाहते हैं, तो नियम सहयोग देता है। अगर आप उठना नहीं है परमात्मा को बीच में लाने की। कर्म से मामला साफ हो | | चाहते हैं, तो नियम सीढ़ी बन जाता है। गहरे में समझने पर, आप जाता है। और सच में ही साफ हो जाता है।
जो करते हैं, उससे आपकी दिशा निर्मित होती है। लेकिन परमात्मा को इनकार करने की कोई भी जरूरत नहीं, | । सुबह आप उठे और आपने क्रोध किया। आपने दिन के लिए क्योंकि परमात्मा का अर्थ ही वह महानियम है जो इस जीवन को चुनाव कर लिया। अब दूसरा क्रोध पहले से ज्यादा आसान होगा; चला रहा है। उसे हम कर्म का नियम कहें, या परमात्मा कहें, एक | तीसरा दूसरे से ज्यादा आसान होगा। सांझ तक आप अनेक बार ही बात है।
| क्रोध करेंगे और सोचेंगे, न मालूम किस दुष्ट का चेहरा देखा! वह जो गिरता है अपने हाथ से, नियम उसे गिराता है। आप आईने में अपना ही देखा होगा। क्योंकि किसी दूसरे के चेहरे से जमीन पर चलते हैं, सम्हलकर चलते हैं, तो ठीक। उलटे-सीधे | | आपके जीवन की गति का कोई संबंध नहीं है; आपसे ही संबंध है। चलते हैं, तो गिर जाते हैं, हाथ-पैर टूट जाते हैं। कोई जमीन | | इसलिए सारे धर्मों ने फिक्र की है कि सुबह उठकर पहला काम आपको गिराती नहीं है। लेकिन उलटा-सीधा जो चलता है, नियम | | परमात्मा की प्रार्थना का करें। उससे मोमेंटम बदलेगा, उससे गति के विपरीत, उसके हाथ-पैर टूट जाते हैं।
बदलेगी। प्रार्थना के बाद एकदम से क्रोध करना मुश्किल होगा। जमीन स्वेच्छा से, आकांक्षा से आपका हाथ-पैर नहीं तोड़ती। | और प्रार्थना के बाद और प्रार्थनापूर्ण होना आसान हो जाएगा। लेकिन जमीन का नियम है, उसके विपरीत जो जाता है, वह टूट ___ जो बात गलत के संबंध में सही है, वही सही के संबंध में भी जाता है। उसके अनुकूल जो जाता है, वह सहजता से मंजिल पर सही है। जो आप करते हैं, उसी दिशा में करने की और गति आती
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