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*गीता दर्शन भाग-7 *
हिंदू सोच लेता है कि भगवान हैं, ठीक है। बाकी अगर वह भी लेकिन उसके पहले यह नहीं कहा जा सकता। यह बड़ी अड़चन विचार करेगा, तो उसको भी लगेगा कि यह बात क्या है? कृष्ण | की बात है। क्योंकि गुरु अगर यह कह दे, मैं भी नहीं हूँ, तुम भी क्यों इतना जोर देते हैं कि मैं ही सब कुछ हूं?
नहीं हो, तो शिष्य यह तो मान लेगा कि तुम नहीं हो, यह नहीं मान और आपको अगर ऐसा लगे कि कृष्ण अहंकारी हैं, इतना जोर | | सकता कि मैं नहीं हूं। क्योंकि यह मानना बहुत कठिन बात है। यह अपने मैं पर देते हैं, तो समझना कि यह चोट आपके अहंकार को | तो कोई भी मान लेगा कि तुम नहीं हो; बिलकुल ठीक है; सच है। लग रही है। यह आपका अहंकार क्रुद्ध हो रहा है। | यह तो हम पहले ही जानते थे। इसलिए जो गुरु कहे, मैं नहीं हूं,
कृष्ण का क्या प्रयोजन होगा? कृष्ण क्यों इतना जोर दे रहे हैं शिष्य बिलकुल राजी होगा। स्वयं पर? कृष्ण के जोर का कारण आप समझ लें।
कृष्णमूर्ति के पास वैसी घटना रोज घट रही है। कृष्णमूर्ति कृष्ण का जोर स्वयं पर नहीं है; कृष्ण का जोर अर्जुन मिट जाए, | उलटा प्रयोग कर रहे हैं, ठीक कृष्ण से उलटा। लेकिन वह प्रयोग इस पर है। पर इसके लिए एक ही उपाय है कि अर्जुन का केंद्र अर्जुन सफल नहीं हो रहा है। वह सफल नहीं हो सकता। उस सफलता के बाहर हट जाए। अर्जुन का केंद्र अर्जुन के भीतर न हो, कहीं बाहर के लिए तो अर्जुन से भी श्रेष्ठ शिष्य चाहिए, जो कि बड़ा हो जाए। कष्ण की यह सारी चेष्टा इसीलिए है कि अर्जन देख पाए मश्किल मामला है। कि उसके भीतर जो मैं की आवाज है, वह व्यर्थ है; और वह संपूर्ण __ कृष्णमूर्ति कहते हैं, न मैं गुरु हूं, न मैं अवतार हूं; मैं कोई भी नहीं के केंद्र पर समर्पित हो जाए।
हूं। वे जो शिष्य बैठकर सुनते हैं, वे बड़े प्रसन्न होते हैं। वे कहते हैं, __ अर्जुन ने कहीं भी यह सवाल नहीं उठाया कि आप इतने अहंकार | बिलकुल ठीक है। लेकिन इससे यह खयाल नहीं आता उनको कि की बातें क्यों कर रहे हैं! यह भी जरा आश्चर्यजनक है। क्योंकि हम भी नहीं हैं। अपने मैं से भरकर लौटते हैं, घटकर नहीं। अर्जुन बुद्धिमान है; जैसा सोफिस्टिकेटेड होना चाहिए, उतना है। और एक खतरा हो जाता है कि अब जहां भी कृष्ण मिल जाएंगे सुशिक्षित है, सुसंस्कारी है। उस समय के प्रतिभावान व्यक्तियों में | | उनको, और कृष्ण कहेंगे कि मैं हूं प्राणों का प्राण; मैं हूं ज्योतियों एक है। मेधावी है। नहीं तो कृष्ण की मित्रता का कोई अर्थ भी न की ज्योति। वे कहेंगे, आपका दिमाग खराब है। क्योंकि कृष्णमूर्ति था। और कृष्ण जिसके सारथी बनने को राजी हो गए हैं, वह कोई ने कहा है कि मैं कुछ भी नहीं हूं। ज्ञानी तो सदा यह कहते हैं कि मैं साधारण गंवार नहीं है। पर अर्जुन एक बार भी नहीं कहता कि आप कुछ भी नहीं हूं। क्यों अपने अहंकार की घोषणा किए जा रहे हैं!
ज्ञानी सदा जानते हैं कि वे कुछ भी नहीं हैं। लेकिन अज्ञानियों से कृष्ण अर्जुन से कह सके, क्योंकि अर्जुन का एक प्रेम, एक बात करना जोखम का काम है। सतत प्रेम कृष्ण के प्रति है। और जहां प्रेम हो, वहां हम समझ पाते | कृष्ण इतने जोर से कह रहे हैं कि मैं यह हूं, ताकि अर्जुन को हैं कि यह जो कहा जा रहा है इसमें कोई अहंकार नहीं है। और प्रेम प्रतीति होने लगे कि वह कुछ भी नहीं है। हो, तो यह भी हम समझ पाते हैं कि यह मेरे लिए कहा जा रहा है। यह ठीक वैसा ही है, जैसा कि एक बड़ी प्रसिद्ध घटना है, जो
तो अर्जुन को पूरे समय यह लगा है कि मैं मिट जाऊं, इसकी | | आपने सुनी होगी कि अकबर ने एक लकीर खींच दी दीवाल पर चेष्टा के लिए कृष्ण अपने मैं को बड़ा कर रहे हैं। वे अपने मैं को | और अपने दरबारियों को कहा कि इसे बिना छुए छोटा कर दो। वे खड़ा कर रहे हैं, ताकि मेरा मैं उस बड़े मैं में खो जाए। वे अपने मैं | | नहीं कर पाए, क्योंकि बुद्धि सीधी कहेगी कि बिना छुए कैसे छोटी के विराट रूप को मुझे दे रहे हैं, ताकि मैं एक बूंद की तरह उस | होगी? हाथ लगाना पड़े, पोंछना पड़े। लेकिन बीरबल ने एक बड़ी सागर में खो जाऊं।
| लकीर उसके पास खींची। उस लकीर को नहीं छुआ, लेकिन वह यह सिर्फ एक उपाय है। अर्जुन मिट सके, राजी हो सके मिटने | | छोटी हो गई। को, इसके लिए यह सिर्फ एक सहारा है।
ये कृष्ण इतना ही कर रहे हैं कि अर्जुन की लकीर के पास एक प्रत्येक गुरु अपने शिष्य को यह सहारा देगा ही। जिस दिन | बहुत बड़ी लकीर खींच रहे हैं, कृष्ण की लकीर। वह अर्जुन का मैं शिष्य मिट जाएगा, उस दिन गुरु हंसकर उससे भी कह देगा कि | है, छोटा-सा टिमटिमाता दीया; और कृष्ण कह रहे हैं, सूर्यों का तुम भी नहीं हो, मैं भी नहीं है।
| सूर्य मैं हूं। तू इधर देख, तू इस तरफ मुड़, तू कहां छोटे-से दीए
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