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एकाग्रता और हृदय - शुद्धि
सब भूल जाएगा, हम अपने काम-धंधे में लग जाएंगे। इस तरह हमने बफर हर चीज में खड़े कर रखे हैं और वैराग्य उदय नहीं हो पाता।
अभ्यास का अर्थ है, बफर का तोड़ना । और हर जगह से, जहां से भी सूरज की किरण मिल सके, वैराग्य की किरण मिल सके, वहां से उसे भीतर आने देना। सब तरफ खुले होना।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते थे, मरघट पर जाओ। पहला ध्यान मरघट पर। और तीन महीने मरघट पर रहो । भिक्षु कहते, लेकिन मरघट पर जाने की क्या जरूरत है? ध्यान यहीं कर सकते हैं! ! बुद्ध कहते, यहां न होगा। तुम मरघट पर ही बैठो दिन-रात । चिताएं जलेंगी; लोग आएंगे जाएंगे; तुम वहीं ध्यान करना ।
तीन महीने जो मरघट पर बैठकर ध्यान कर लेता, उसके मौत के संबंध में जितने बफर होते, सब टूट जाते। तब वह यह नहीं देखता, कौन मरा। मौत दिखाई पड़ती। कौन का कोई संबंध नहीं रह जाता।
और चौबीस घंटे मरघट पर बैठे-बैठे यह असंभव है तीन महीने में कि आपको यह समझ में न आ जाए कि यह देह आज नहीं कल जलेगी। यह असंभव है कि आपको सपने न आने लगें कि आप जलाए जा रहे हैं चिता पर, तीन महीने मरघट में रहने पर। यह असंभव है कि मौत इतनी प्रगाढ़ न दिखाई पड़ने लगे कि जीवन का रस खो जाए।
तो मौत का अभ्यास हो जाएगा मरघट पर। अभ्यास से वैराग्य उदय होगा, घनां होगा। जीवन के साथ जो हमारे राग के, लगाव के संबंध हैं, वे क्षीण और शिथिल हो जाएंगे।
अगर बुद्ध के जमाने में एक्सरे रहा होता, तो वे कहते कि अपनी पत्नी का एक्सरे अपने साथ रखो। और जब भी पत्नी की याद आए, एक्सरे देखो, तो समझ में आएगा कि देह कितनी सुंदर है।
लोग फोटो रखते हैं। फोटो रखना ठीक नहीं है। एक्सरे की कापी रख लेना एकदम अच्छा है। और जब भी मन में आ जाए, तो फिर-फिर उसको देख लेना उचित है।
तो एक्सरे की फोटो अभ्यास बन जाएगी। उससे वैराग्य का जन्म होगा; सघन होगा। फिर धीरे-धीरे पत्नी को भी देखेंगे, तो आपके पास एक्सरे वाली आंखें हो जाएंगी। उसकी सुंदर चमड़ी के पीछे हड्डियां दिखाई पड़ने लगेंगी। जब उसको छाती से लगाएंगे, तो आपको अस्थिकंकाल छूता हुआ मालूम पड़ेगा।
बफर तोड़ने हैं और वैराग्य को जन्माना है। और उसका निरंतर अभ्यास चाहिए। क्योंकि मन का पुराना अभ्यास है। और मन से
| संघर्ष है। मन को काटना है। मन बहुत सबल है। आपने ही उसको सबल किया है।
हम सूत्र को लें।
और हे अर्जुन, जो तेज सूर्य में स्थित हुआ संपूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चंद्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है, उसको तू मेरा ही तेज जान ।
और मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूं और रस- स्वरूप अर्थात अमृतमय सोम होकर संपूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं।
मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित हुआ वैश्वानर अग्निरूप | होकर प्राण और अपान से युक्त अन्न को पचाता हूं। और मैं ही सब प्राणियों के हृदय में अंतर्यामीरूप से स्थित हूं तथा मेरे से ही स्मृति, | ज्ञान और अपोहन अर्थात संशय-विसर्जन होता है और सब वेदों द्वारा मैं ही जानने योग्य हूं तथा वेदांत का कर्ता और वेदों को जानने वाला भी मैं ही हूं।
कुछ बातें। पहली बात, कृष्ण के ये सारे सूत्र अर्जुन का समर्पण | संभव हो सके, इसके लिए हैं। कृष्ण ये सारी बातें कह रहे हैं उस एक केंद्र की ओर इशारा करने को, जो सबका आधार है।
और अगर वह आधार हमें दिखाई पड़ने लगे, तो हम उस आधार की शरण सहज ही जा सकेंगे। अगर हमारी बुद्धि को उसकी झलक भी मिलने लगे, तो हम अपने होने का आग्रह, और अपने आपको कुछ समझने का आग्रह, अस्मिता और अहंकार की भ्रांति हमारी छूटनी शुरू हो जाएगी ।
तो कृष्ण जब बार-बार यह कहते हैं कि मैं यह हूं, मैं यह हूं, मैं यह हूं, तो बहुत-से पढ़ने वालों को गीता में ऐसा लगता है कि कृष्ण बड़े अहंकारी हैं। यह आदमी अजीब है। यह क्यों कहे चला जाता है कि सभी चांद - सूरज की रोशनी मैं हूं कि सभी रसों में छिपा हुआ रस मैं हूं! कि सभी प्राणों में धड़कता प्राण मैं हूं !
आज के जमाने में तो गीता जैसी किताब लिखनी बड़ी मुश्किल हो जाए; कहनी भी मुश्किल हो जाए। फौरन पत्थर पड़ जाएं। क्योंकि लोग कहें कि दिमाग खराब है आपका ! सभी कुछ आप हैं?
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और अगर हिंदुओं को गीता पढ़ते वक्त यह खयाल नहीं आता, तो बफरों के कारण । उनको लगता है, कृष्ण भगवान हैं, इसलिए ठीक है। लेकिन मुसलमान जब गीता पढ़ता है, तो उसे फौरन खयाल आता है कि यह आदमी ठीक नहीं मालूम पड़ता। जैन जब पढ़ता है, तो उसे फौरन समझ में आता है कि यह आदमी अहंकारी है।