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गीता दर्शन भाग-7**
भी दो कौड़ी का है, उसका भी कोई मूल्य नहीं है। द्वंद्व से कोई संबंध नहीं है। और जगत एक संतुलन है। जगत में बुराई और भलाई सदा संतुलित है। साधना तो जगत के पार उठने की प्रक्रिया लेकिन यह खयाल में तभी आएगा, जब थोड़ा-सा अनुभव करेंगे।
अभी तो हम कामों में ही चुनते हैं। यह काम बुरा है, छोड़ दें। यह काम भला है, कर लें। अभी एक्शंस पर, कर्म पर ही हमारा जोर है। वह जो कर्मों के पीछे छिपा हुआ हमारा स्वभाव है, उस पर हमारा कोई जोर नहीं है।
उसे जान लें, जो बुरा भी करता है और भला भी करता है। उसे जान लें, जो दोनों के पीछे छिपा है। उसे जान लें, जो सब करके भी अकर्ता है। उसे जान लें, जो सबका द्रष्टा है। उससे कोई लेना-देना नहीं है आपके कर्म का । आप सुबह पूजा करते हैं, प्रार्थना करते हैं, स्नान करते हैं कि नहीं करते हैं, मंदिर में जाते हैं कि मस्जिद में – इससे कोई संबंध नहीं है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप मंदिर मत जाएं। और मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि आप अच्छाई मत करें। मैं सिर्फ इतना ही कह रहा हूं कि करने के पार जाना पड़ेगा, तभी धर्म से संबंध जुड़ेगा ।
वह अर्जुन भी इसी द्वंद्व से ग्रस्त है। उसका भी सवाल क्या है? उसकी भी चिंता क्या है? उसकी उलझन क्या है ?
यही उलझन है। वह देखता है कि यह जो युद्ध है, बुराई है। इसमें सिर्फ लोग मरेंगे, सिर्फ हत्या होगी, खून बहेगा। न मालूम कितनी स्त्रियां विधवा हो जाएंगी। न मालूम कितने बच्चे अनाथ हो जाएंगे। घर-घर में दुख और हाहाकार छा जाएगा। यह बुरा है।
तो वह कृष्ण से यही कह रहा है कि इस बुराई को मैं छोड़ दूं । यह बुराई करने जैसी नहीं लगती। इससे तो अच्छा है कि मैं जंगल चला जाऊं, संन्यास ले लूं, विरक्त हो जाऊं, छोड़ दूं सब। बुराई | को छोड़ दूं, अच्छाई को पकड़ लूं। और कृष्ण उसे क्या समझा हैं ? इसलिए कृष्ण का संदेश सरल होते हुए भी अति कठिन है। कृष्ण उसे यह समझा रहे हैं कि तू जब तक यह सोचता है कि यह बुरा है, इसे छोडूं यह भला है, इसे करूं; तब तक तू उलझन में रहेगा। तू कर्म की धारणा छोड़ दे । तू यह भाव छोड़ दे कि मैं कर्ता हूं।
अगर तू युद्ध छोड़कर चला जाएगा, तो तू सोचेगा, मैंने संन्यास किया, मैंने त्याग किया, मैंने वैराग्य किया; पर कर्म का भाव तुझे बना रहेगा। युद्ध करेगा, तो तू समझेगा, मैंने युद्ध किया, मैंने लोगों
को मारा, या मैंने लोगों को बचाया।
दोनों ही धारणाएं भ्रांत हैं। तू करने वाला नहीं है। करने की बात तू विराट पर छोड़ दे। तू सिर्फ निमित्त हो जा। तू सिर्फ विराट को मौका दे कि तेरे भीतर से कुछ कर सके। तू सिर्फ देखने वाला बन | जा तू इस युद्ध में एक द्रष्टा हो ।
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कृष्ण की पूरी चेष्टा यही है कि अर्जुन बुरे और भले के द्वंद्व से छूट जाए, निर्द्वद्व हो जाए; दो के बीच चुने नहीं, तीसरा हो जाए; दोनों से अलग हो जाए।
साधना का यही प्रयोजन है।
दूसरा प्रश्न : कल के सूत्र में आपने कहा कि वैज्ञानिक कहते हैं कि किसी भी इंद्रिय का यदि तीन साल तक उपयोग न किया जाए, तो वह इंद्रिय क्रियाशील नहीं रह जाती। और हम कामेंद्रिय का उपयोग बीस-पच्चीस वर्षों तक भी नहीं करते, फिर भी हम खुद को कामवासना से मुक्त नहीं पाते। । हम तो क्या, तथाकथित साधु-संन्यासी कई वर्षों की साधना के बाद भी कामवासना से पीड़ित दिखाई पड़ते हैं। क्या यह सिद्धांत काम - इंद्रिय पर लागू नहीं होता ?
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स संबंध में दो-तीन बातें समझनी पड़ें। पहली बात, काम- इंद्रिय आपकी और इंद्रियों जैसी ही इंद्रिय नहीं है। सच तो यह है कि काम- इंद्रिय आपकी सभी इंद्रियों का केंद्र है, आधार स्रोत है। तो और इंद्रियां ऊपर-ऊपर हैं, परिधि पर हैं। कामेंद्रिय गहन अंतर में है, गहरे में है, जड़ में है।
वृक्ष की शाखाओं को हम काट दें, तो वृक्ष नहीं मरता; नई शाखाएं निकल आती हैं। वृक्ष की जड़ों को हम काट दें, वृक्ष मर जाता है। पुरानी शाखाएं भी जो हरी थीं, वे भी सूखकर समाप्त हो जाती हैं।
आंख ऊपर है, हाथ ऊपर है, कान ऊपर हैं, कामेंद्रिय बहुत गहरे में है। इसलिए अगर आप आंख का उपयोग तीन वर्ष तक न करें, तो आंखें क्षीण हो जाएंगी। कान का उपयोग न करें, तो आप बहरे हो जाएंगे। हाथ को न चलाएं, तो हाथ पंगु हो जाएगा। पैर का