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* प्यास और धैर्य
केंद्र पर सदा पहुंचती रहे। जो भी मैं देखू, उसमें मुझे केंद्र की प्रतीति | दिन तुम पुनः अपनी निष्पाप स्थिति को उपलब्ध हो जाओगे। उसे बनी रहे, वह धारा भीतर बहती रहे कि पुरुषोत्तम मौजूद है। ऐसी तुमने कभी खोया नहीं है, चाहे तुम भूल गए हो। अगर प्रतीति हो जाए, तो आपका पूरा जीवन भजन हो जाएगा। | तो ज्यादा से ज्यादा संसार एक विस्मरण है। ज्यादा से ज्यादा पाप
वह सर्वज्ञ पुरुष सब प्रकार से निरंतर मुझ परमेश्वर को भजता है।। | अपनी निष्पाप दशा का विस्मरण है। हमने उसे खोया नहीं है; हम तभी निरंतर भजन हो सकता है। अगर राम-राम जपेंगे, तो | | उसे खो भी नहीं सकते। हमारी निर्दोषता, हमारी जो इनोसेंस है, वह निरंतर तो हो ही नहीं सकता। क्योंकि दो राम के बीच में भी जगह | हमारी सहज अवस्था है, वह सांयोगिक नहीं है। उसे नष्ट करने का छूट जाएगी। एक दफा कहा राम, दूसरी दफा कहा राम, बीच में | | उपाय नहीं है। खाली जगह छूट गई; तो निरंतर तो हो ही नहीं पाया। __जैसे आग गरम है, ऐसे हम निष्पाप हैं। चेतना का निष्पाप होना __ फिर कब तक कहिए! जब तक होश रहेगा कहिए, रात नींद लग धर्म है। अर्जुन को इसीलिए कृष्ण निष्पाप कहते हैं। हे निष्पाप जाएगी, वह चूक जाएगा। कोई डंडा सिर पर मार देगा, क्रोध आ | | अर्जुन! जाएगा; वह निरंतर का चूक जाएगा, निरंतर नहीं रह पाएगा। अर्जुन को स्मरण नहीं है इस निष्पाप स्थिति का, इसलिए वह कितनी ही तेजी से कोई राम-राम जपे, तो भी दो राम के बीच में | भयभीत है। वह डरा हुआ है कि पाप हो जाएगा। युद्ध मैं लडूंगा, जगह छूटती रहेगी; उतनी खाली जगह में परमात्मा चूक गया। । काढूंगा, मारूंगा–पाप हो जाएगा। फिर इस पाप के पीछे भटकूँगा
निरंतर तो तभी हो सकता है कि जो भी हो रहा हो, उसी में | | अनंत जन्मों तक। और कृष्ण कह रहे हैं, त निष्पाप है। परमात्मा हो। जो डंडा मार रहा है सिर पर, अगर उसमें भी पुरुषोत्तम | जैसे ही कोई व्यक्ति पहली पर्त से पीछे हटेगा, वैसे ही निष्पापता दिखे, तो भजन निरंतर हो सकता है। और जो राम-राम के बीच में की धारा शुरू हो जाती है। और तीसरी पर्त पर सब निष्पाप है।
खाली जगह छट जाती है, उस खाली जगह में भी परुषोत्तम दिखे. - इसे मैं ऐसा समझ पाता हूं। पहली पर्त पर सभी पाप है। शरीर तभी पुरुषोत्तम निरंतर हो सकता है।
के पर्त पर सभी पाप है। वह शरीर का स्वभाव है। पुरुषोत्तम के पर्त और जब तक भजन निरंतर न हो जाए, सतत न हो जाए, तब पर सभी निष्पाप है। वह पुरुषोत्तम का स्वभाव है, केंद्र का स्वभाव तक ऊपर-ऊपर है; तब तक चेष्टित है; तब तक वह हमारी सहज । है। और दोनों के बीच में हमारा जो मन है, वहां सब मिश्रित है; आत्मा नहीं बनी है।
पाप, निष्पाप, सब वहां मिश्रित है। इसलिए मन सदा डांवाडोल है। __ हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्यमय-रहस्ययुक्त गोपनीय | वह सोचता है, यह करूं न करूं? पाप होगा कि पुण्य होगा? शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान अच्छा होगा कि बुरा होगा? और कृतार्थ हो जाता है।
__ अर्जुन वहीं खड़ा है, दूसरे बिंदु पर। कृष्ण तीसरे बिंदु से बात ___ कृष्ण निरंतर अर्जुन को निष्पाप कहते हैं। कहे चले जाते हैं, कर रहे हैं। अर्जुन दूसरे बिंदु पर खड़ा है। भीम और दूसरे, पहले निष्पाप! क्योंकि यह हिंदू धारणा है और बड़ी मूल्यवान है कि बिंदु पर खड़े हैं। उनको सवाल भी नहीं है। निष्पापता हमारा स्वभाव है। उससे वंचित होने का उपाय नहीं है। उस महाभारत के युद्ध में तीन तरह के लोग मौजूद हैं। पहली पाप करके भी आपके निष्पाप होने में कोई फर्क नहीं पड़ता। यह | पर्त पर सभी लोग खड़े हैं। वह पूरे युद्ध में जो सैनिक जुटे हैं, योद्धा हिंदू विचार की बड़ी गहन धारणा है।
इकट्ठे हुए हैं, वे पहली पर्त में हैं। उनको सवाल ही नहीं है कि क्या पश्चिम, विशेषकर ईसाइयत इसको समझने में बिलकुल गलत और क्या सही! इतना भी उनको विचार नहीं है कि जो हम असमर्थ होती है। क्योंकि जब पाप किया, तो निष्पाप कैसे रहे? कर रहे हैं, वह ठीक है या गलत है! वह शरीर के तल पर कोई पाप किया, तो पापी हो गए।
| विचार होता भी नहीं। शरीर मूर्छित है, वहां सभी पाप है। यहीं हिंदू चिंतन बड़ा कीमती है। हिंदू चिंतन कहता है, क्या तुम | | अर्जुन बीच में अटका है। उसके मन में संदेह उठा है। उसके मन करते हो, यह ऊपर ही ऊपर रह जाता है। जो तुम हो, उसे तुम्हारा में चिंतना जग गई है; विमर्ष पैदा हुआ है। वह सोच रहा है। सोचने कोई भी करना नष्ट नहीं कर पाता। तुम्हारी निर्दोषता तुम्हारा स्वभाव से दुविधा में पड़ गया है। वे जो पहली पर्त में खड़े लोग हैं, उनकी है। तो जिस दिन भी तुम यह समझ लोगे कि कृत्य से मैं दूर हूं, उसी | | कोई दुविधा नहीं है, स्मरण रखें। वे निःसंदिग्ध लड़ने को खड़े हैं।