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________________ * गीता दर्शन भाग-7 * उनके मन में कोई संदेह, कोई सवाल नहीं है। लड़ने आए हैं, लड़ना | द्वारा कहा गया, इसको तत्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ उनका धर्म है, लड़ना नियति है; उसमें कोई विचार नहीं है। हो जाता है। ___ अर्जुन दुविधा में पड़ा है। उसकी बुद्धि अड़चन में है। बुद्धि सदा | - सुनकर नहीं; क्योंकि सुन तो अर्जुन ने लिया। अगर सुनकर ही अडचन में होगी. क्योंकि वह मध्य में खड़ी है। वह पाप के जगत होता होता, तो अर्जुन कहता कि बात खतम हो गई, कृतार्थ हो की तरफ भी जा सकती है और निष्पाप के जगत की ओर भी जा | | गया। सुन आपने भी लिया...। सकती है। वह दोनों की तरफ देख रहा है। और पीछे कृष्ण हैं, वे | तत्व से जानकर! ऐसा जो कृष्ण ने कहा है; जब अर्जुन ऐसा पुरुषोत्तम हैं, वहां सभी निष्पाप है। . स्वयं जान ले; जब यह उसकी अनुभूति बन जाए; जब उसकी एक बात मजे की है कि जो पाप के तल पर खड़े हैं, उन्हें भी | प्रतीति हो जाए; जब वह कह सके, हां, पुरुषोत्तम मैं हूं; तो कृतार्थ कोई संदेह नहीं। जो निष्पाप के तल पर खड़ा है, उसे भी कोई संदेह | | हो जाता है। तो फिर जीवन में अर्थ आ जाता है। फिर प्रत्येक क्रिया नहीं। क्योंकि वहां सभी निष्पाप है। कुछ पाप हो ही नहीं सकता। | अर्थवान हो जाती है। फिर व्यक्ति जो भी करता है, सभी में फल जो पाप के तल पर खड़े हैं, उसे निष्पाप का कोई पता ही नहीं है, | और फूल लग जाते हैं। फिर व्यक्ति जो भी, जिस भांति भी जीता इसलिए तलना का कोई उपाय नहीं है। अर्जन मध्य में खड़ा है। । | है, सभी तरह के जीवन से सुगंध आनी शुरू हो जाती है। उस अर्जुन शब्द का अर्थ भी बड़ा कीमती है। अर्जुन शब्द बनता है | | व्यक्ति में पुरुषोत्तम के फल लगने शुरू हो जाते हैं, पुरुषोत्तम के ऋजु से। ऋजु का अर्थ होता है, सीधा। अऋजु का अर्थ होता है, फूल आने शुरू हो जाते हैं। तिरछा, डांवाडोल, कंपता हुआ। अर्जुन का अर्थ है, कंपता हुआ, _और कृष्ण कहते हैं, इस रहस्यमय गोपनीय शास्त्र को मैंने लहरों की तरह डांवाडोल, इरछा-तिरछा। कुछ भी सीधा नहीं है। तुझसे कहा। और दोनों तरफ उसके कंपन हैं। वह तय नहीं कर पा रहा है। ___ यह रहस्यमय तो बहुत है, और गोपनीय भी है। रहस्यमय कृष्ण निष्पाप पुरुषोत्तम हैं। वहां कोई कंपन नहीं है। इसलिए | इसलिए है कि जब तक आपने नहीं जाना, इससे बड़ी कोई पहेली अर्जुन कृष्ण से पूछ सकता है और इसलिए कृष्ण अर्जुन को उत्तर | | नहीं हो सकती कि पाप करते हुए कैसे निष्पाप! संसार में खड़े हुए दे सकते हैं। कृष्ण की पूरी चेष्टा यह है कि अर्जुन पीछे सरक आए, कैसे पुरुषोत्तम! दुख में पड़े हुए कैसे अमृत का धाम! इससे ज्यादा निष्पाप की जगह खड़ा हो जाए; वहां से युद्ध करे। यही गीता का | पहेली और क्या होगी? स्पष्ट उलझन है। इसलिए रहस्यमय। पूरा का पूरा सार है। कैसे अर्जुन सरक आए निष्पाप की दशा में . और गोपनीय इसलिए कि इस बात को, कि तुम पुरुषोत्तम हो, और वहां से युद्ध करे! कि तुम निष्पाप हो, अत्यंत गोपनीय ढंग से ही कहा जाता रहा है। दो हालतों में युद्ध हो सकता है। एक तो अर्जुन सरक जाए शरीर क्योंकि पापी भी इसको सुन सकता है। और पापी यह मान ले के तल पर, जहां भीम और दुर्योधन खड़े हैं, वहां; वहां युद्ध हो सकता है कि जब निष्पाप हैं ही, तो फिर पाप करने में हर्ज क्या है? सकता है। और या वह कृष्ण के तल पर सरक आए, तो युद्ध हो | | और जब पाप करने से निष्पाप होने में कोई अंतर ही नहीं पड़ता, सकता है। तो किए चले जाओ। पहले तल पर सरक जाए, तो युद्ध साधारण होगा। जैसा रोज | | इसलिए कृष्ण कहते हैं, गोपनीय भी, गुप्त रखने योग्य भी। होता रहता है। तीसरे तल पर सरक जाए, तो युद्ध असाधारण | हम सब इसी तरह के लोग हैं। हम अपने मतलब का अर्थ होगा। असाधारण होगा, जैसा कभी-कभी होता है, सदियों में कभी | | निकाल ले सकते हैं। हम सोच सकते हैं, जब निष्पाप हैं, तो बात कोई एक आदमी तीसरे तल पर खड़े होकर युद्ध में उतरता है। और | खत्म हो गई। अब हम चोरी करें, बेईमानी करें, डाका डालें, हत्या अगर वह बीच में खड़ा रहे, तो वह कुछ भी न कर पाएगा; युद्ध | करें, कोई हर्ज नहीं। क्योंकि भीतर का निष्पाप तो निष्पाप ही बना होगा ही नहीं। वह सिर्फ दुविधा में नष्ट हो जाएगा। वह संदेह में | | रहता है; पुरुषोत्तम को तो कोई अंतर पड़ता नहीं है! डूबेगा और समाप्त हो जाएगा। अधिक लोग संदेह में ही | | इसलिए बात गोपनीय है। उन्हीं से कहने योग्य है, जो सोचने डूबते-उतराते रहते हैं। | को, बदलने को तैयार हुए हों। उन्हीं को समझाने योग्य है, जो उसे हे निष्पाप अर्जुन, ऐसे यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे ठीक से समझेंगे; जो उसे सम्यकरूपेण समझेंगे; जो उसका 278
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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