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________________ * हे निष्पाप अर्जुन र अर्जुन के समझने से घटना घटेगी। कृष्ण जो मेहनत कर रहे हैं, | करते हो, हम उसको धुंधला कर देते हैं। यह आत्मरक्षा है गहरी। वह समझाने के लिए नहीं कर रहे हैं। अगर ठीक से समझें, तो वे | जैसे हम अपने शरीर को बचाना चाहते हैं, वैसे ही अपने मन को ऐसी परिस्थिति पैदा कर रहे हैं, जहां अर्जुन समझने के लिए तैयार भी बचाना चाहते हैं। जैसे कोई आपके शरीर पर हमला करे, तो आप हो जाए, जहां अर्जुन समझ सके। वे अर्जुन को धक्का दे रहे हैं। | आत्मरक्षा के लिए कुछ आयोजन करेंगे। गरु का हमला और भी किसी तरफ इशारा कर रहे हैं। आंख तो अर्जुन को ही उठानी | गहरा है। वह आपके मन को मिटाने के लिए तत्पर हो गया है। पड़ेगी। और अगर अर्जुन आंख उठाने को राजी न हो, तो कृष्ण के | शरीर को जो मिटाते हैं, उनका मिटाना बहुत गहरा नहीं है। जीतने का कोई भी उपाय नहीं है। क्योंकि वासना आपकी मौजूद है। आप फिर शरीर ग्रहण कर लेंगे। लेकिन कृष्ण आयोजन कर रहे हैं पूरा। इन तेरह अध्यायों में | | वे आपसे वस्त्र छीन रहे हैं। लेकिन जो मन को मिटाने की कोशिश अलग-अलग मोर्चों से कृष्ण अर्जुन पर हमला कर रहे हैं। कई तरफ कर रहा है, वह आपसे सब कुछ छीन रहा है। फिर आप चाहें तो से चोट कर रहे हैं। शायद किसी चोट में अर्जुन सजग हो जाए। भी शरीर ग्रहण न कर सकेंगे। अगर मन समाप्त हो गया, तो जन्म लेकिन यह बात शायद है। इसमें अर्जुन का सहयोग जरूरी है। और की सारी व्यवस्था खो गई। मृत्यु परम हो गई। अगर अर्जुन सहयोग न दे, तो कृष्ण की कोई सामर्थ्य नहीं है। इसलिए ध्यान महासमाधि है। महासमाधि शब्द का उपयोग हम इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। क्योंकि हम में से बहुतों को यह | | मृत्यु के लिए भी करते हैं। वह ठीक है। क्योंकि समाधि एक भीतरी खयाल रहता है, गुरु-कृपा से हो जाएगा। अगर गुरु-कृपा से होता, | मृत्यु है। आप वस्तुतः मर जाएंगे। तो इतनी बड़ी गीता बिलकुल फिजूल है। कृष्ण नासमझ नहीं हैं। तो जैसे कोई शरीर पर हमला करे तलवार से, और आप अपनी अगर यह घटना कपा से घटनी होती. तो कष्ण जैसा कपा करने ढाल से रक्षा करें. ऐसा जब भी कोई गरु आपके मन को तोड़ने के वाला और अर्जुन जैसा कृपा को पाने वाले पात्र को दुबारा खोजने | | लिए हमला करेगा, तब शंकाओं से, संदेहों से, सवालों से आप की कहां सुविधा है। दोनों मौजूद थे। | अपनी रक्षा करेंगे। वे ढाल हैं। वह आप बचा रहे हैं। आप कह रहे __ कृष्ण कृपा कर सकते थे और अर्जुन कृपा का आकांक्षी था और हैं, करो कोशिश। शायद यह सचेतन नहीं है; यह अचेतन है। पात्र था। और क्या पात्रता चाहिए? इतनी आत्मीयता थी, इतनी - यह वैसा ही अचेतन है, जैसा आपकी आंख के सामने कोई जोर निकटता थी कि जो बात कृपा से हो सकती, उसके लिए कृष्ण क्यों | | से हाथ करे, तो आपको सोचना भी नहीं पड़ता आंख झपकने के इतनी लंबी गीता में जाते! इतने लंबे आयोजन की कोई भी जरूरत लिए, आंख झपक जाती है। आंख झपकती है अचेतन से। आपको नहीं थी। | सोचना नहीं पड़ता। मैं आपकी आंख के सामने हाथ करूं, तो ऐसा नहीं; वह घटना कृपा से नहीं होने वाली। कृपा भी तभी घट नहीं कि आप पहले सोचते हैं कि हाथ आ रहा है, अब मैं अपने सकती है, जब अर्जुन खुला हो, राजी हो, तैयार हो, सहयोग करे। को बचाऊं, तो आंख बंद कर लूं। इतना सोचने में तो आंख फूट यह कृपा ही है कि कृष्ण उसे समझा रहे हैं, यह जानते हुए भी कि जाएगी। इतना समय नहीं है। और विचार में समय लगता है। समझाने से ही कोई समझ नहीं जाता। यह कृपा का हिस्सा है। ___ इसलिए मनुष्य के मन की दोहरी व्यवस्था है। जिन चीजों में समय लेकिन इस चेष्टा से संभावना है कि अर्जुन बच न पाए। | की सुविधा है, उनमें हम विचार करते हैं। और जिनमें समय की अर्जन सारी कोशिश करेगा बचने की। अर्जन सवाल उठाएगा. | सुविधा नहीं है, उनमें हम अचेतन से प्रतिकार करते हैं। आंख पर कोई समस्याएं खड़ी करेगा। संशय-संदेह, ये सब चेष्टाएं हैं आत्मरक्षा | हमला करे, तो तत्क्षण आंख बंद हो जाती है। इसकी अनकांशस, की। अर्जुन कोशिश कर रहा है अपने को बचाने की। अर्जुन | | अचेतन व्यवस्था है। नींद में भी कीड़ा आपके पैर पर चले, तो पैर कोशिश कर रहा है कि तुम दिखा रहे हो, लेकिन हम न देखेंगे। | आप झटक देते हैं। उसके लिए होश की जरूरत नहीं है। इसको थोड़ा समझें। ठीक ऐसे ही मन भी अपनी आंतरिक रक्षा करता है। और गुरु अर्जुन की ये सारी शंकाएं, ये सारे संदेह इस बात की कोशिश है के पास मन जितना परेशान हो जाता है, उतना कहीं और नहीं होता। कि तुम दिखा रहे हो, वह ठीक, लेकिन हम न देखेंगे। हम और क्योंकि वहां मौत निकट है। अगर ज्यादा गुरु के आस-पास रहे, सवाल उठाते हैं। हम और धुआं पैदा करते हैं। तुम जिस तरफ इशारा तो मरना ही पड़ेगा। उससे बचने के लिए आप अपने चारों तरफ | 37
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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