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गीता दर्शन भाग-7*
तैयार किया गया है। उन्हें सांप काट ले, तो सांप मर जाएगा। उन्हें | | आप जैसे हैं, उस हिसाब से बहुत दूर। वह जैसा है, उस हिसाब बेहोश करने का कोई उपाय नहीं है। कोई शराब उन्हें बेहोश न कर से बिलकुल पास। सकेगी।
परमात्मा की तरफ हमें चलना पड़ता है, इसलिए नहीं कि बूंद-बूंद दुख की आप झेलते रहें, तो आप नरक से भी बिना परमात्मा दूर है। परमात्मा की तरफ हमें चलना पड़ता है, क्योंकि विचलित हुए गुजर जाएंगे। तपश्चर्या का यही अर्थ है, दुख को हम अयोग्य हैं। हमारी अयोग्यता ही उसकी दूरी बन गई है। झेलने की तैयारी। लेकिन जो दुख के संबंध में सच है, वही सुख उचित है, मार्ग पर आनंद मिलता हो; आह्लादित हों, अनुगृहीत के संबंध में भी सच है। वह भी बूंद-बूंद ही झेला जा सकता है। | अनुभव करें। गहरे अहोभाव से भरें और उस आनंद को भोगें। और आनंद तो बड़ी घटना है। वह महासुख है।
जैसे-जैसे भोगेंगे, वैसे-वैसे आपकी भोगने की क्षमता बढ़ती अगर मंजिल आपको मिल भी जाए, तो पहली तो बात आप उसे | जाएगी। परमात्मा परम भोग है। उसके लिए तैयार होना होगा। पहचान न सकेंगे। आपकी आंखें बहुत छोटी हैं और मंजिल बहुत उसके लिए विराट आकाश जैसा हृदय चाहिए।विराट को हम बड़ी होगी। उसे आपकी आंखें नहीं देख पाएंगी। मंजिल सामने भी बुलाते हैं क्षुद्र में, यह असंभव है। जिसे हम बुलाते हैं, उसके योग्य हो-सामने है ही–तो भी आप पहचान न पाएंगे। क्योंकि उसको हमारे पास स्थान भी चाहिए। पहचानने के लिए आंखों का एक प्रशिक्षण चाहिए। और दुर्भाग्य परमात्मा को बहुत लोग पुकारते हैं, बिना इसकी फिक्र किए कि से अगर मंजिल आपको मिल भी जाए, आप पहचान भी लें, तो | कहां है वह घर, जहां उसे ठहराएंगे? कहां है वह आसन, जहां उसे वह वरदान सिद्ध नहीं होगी, अभिशाप सिद्ध होगी। क्योंकि उतना | | बिठाएंगे? आतिथ्य का सामान कहां है? किन फूलों से करेंगे आनंद आप झेल न पाएंगे। वह आनंद महाघातक होगा। उसकी पूजा? वह मस्तक कहां, जो उसके चरणों में रखेंगे? और
तो साधना बहुत-सी तैयारियों का नाम है। मंजिल तक पहुंचना | अचानक वह सामने आ जाए, तो बड़ी बिगूचन हो जाएगी, बड़ी है। मंजिल को देख सकें, इसके लिए आंखों को प्रशिक्षित करना अड़चन हो जाएगी। हम पागल होकर दौड़ेंगे, कुछ भी न मिलेगा है। मंजिल को अनुभव कर सकें, इसलिए आनंद की एक-एक कि क्या करें, क्या न करें। शायद हम ऐसी अड़चन में न पड़ें, लहर को धीरे-धीरे आत्मसात करना है। मंजिल को झेल सकें, वह इसलिए परमात्मा तब तक प्रतीक्षा करता है। महाआनंद जब बरसे तब आप विक्षिप्त न हो जाएं, होश में रहें, मूर्च्छित न हो जाएं, गिर न पड़ें, मिट न जाएं, उसके लिए भी हृदय के पात्र को तैयार करना जरूरी है।
दूसरा प्रश्नः कृष्ण अर्जुन को पिछले तेरह अध्यायों में मंजिल को छोड़ ही दें। मंजिल की बात ही मत उठाएं। मार्ग की। समझा चुके हैं। फिर भी अर्जुन के मन में प्रश्न, फिक्र करें। और एक-एक इंच मार्ग को मंजिल ही समझकर चलें। शंकाएं और संशय उठते ही चले जाते हैं। आप भी बहुत आनंद मिलेगा। बहुत आनंद बढ़ेगा। और एक दिन अचानक हमें अनेक वर्षों से लगातार समझा रहे हैं, लेकिन किसी भी क्षण वह घटना घट सकती है। जिस क्षण भी टयूनिंग पूरी फिर भी हमारे मन में प्रश्न, शंकाएं और अविश्वास हो जाएगी, जिस क्षण भी हृदय की वीणा बजने को बिलकुल तैयार | उठते ही चले जाते हैं। इसके क्या कारण हैं और होगी, उसी क्षण मंजिल सामने होगी।
इसका क्या समाधान है? और तब आप हंसेंगे, क्योंकि तब आप यह भी पाएंगे कि यह मंजिल सदा से सामने थी। मैं ही तैयार नहीं था, मंजिल सदा तैयार थी। मैं द्वार पर ही खड़ा था, शायद पीठ किए था। शायद मुड़ने भर कष्ण के समझाने से अर्जुन नहीं समझेगा। अर्जुन के की जरूरत थी। थोड़ा-सा ध्यान मोडने की जरूरत थी। और जिसे पा समझने से ही समझेगा। अगर कृष्ण के हाथ में यह मैं तलाश रहा था, वह बिलकुल पास था।
बात होती कि अर्जुन उनके समझाने से समझता होता, उपनिषद कहते हैं, वह परम सत्य दूर से दूर और पास से भी तो पृथ्वी पर कोई अज्ञानी अब तक न बचता। बहुत कृष्ण हो चुके पास है। दूर से दूर, आपके कारण; पास से पास, उसके कारण। अर्जुन बाकी हैं।