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गीता दर्शन भाग-7
सुरक्षा की दीवार खड़ी करते हैं। वह कवच है।
अर्जुन यह कह रहा है कि समझाओ। लेकिन मुझे समझ में ही नहीं आ रहा है। जब समझ में ही नहीं आ रहा है, तो बदलने की कोई जरूरत नहीं है। मैं जैसा हूं, वैसा ही रहूंगा। जब तक समझ में न आ जाए, जब तक मेरी सब शंकाएं न मिट जाएं, तब तक मैं जैसा हूं, वैसा ही रहूंगा । और इसमें दोष मेरा नहीं है। तुम नहीं समझा पा रहे हो, तो दोष तुम्हारा है।
इस भीतरी मन की कुशलता को अगर समझ लेंगे, तो दोनों बातें खयाल में आ जाएंगी कि क्यों अर्जुन सवाल उठाए चला जा रहा है। और क्यों कृष्ण जवाब दिए जा हैं।
यह एक खेल है। जिस खेल में अर्जुन अपनी व्यवस्था कर रहा है और कृष्ण अपनी व्यवस्था कर रहे हैं। एक जगह अर्जुन ढाल रख ता है, कृष्ण दूसरी तरफ से हमला करते हैं, जहां उसने अभी ढाल नहीं रखी। वे उसे थका ही डालेंगे। वह ढाल रखते-रखते थक जाएगा। न केवल थक जाएगा, बल्कि ढाल रखते-रखते उसे समझ
भी आ जाएगा कि मैं क्या कर रहा हूं? मैं किससे बच रहा हूं? जो मुझे महजीवन दे सकता है, उससे मैं बचने की कोशिश कर रहा हूं! मैं किसके संबंध में संदेह उठा रहा हूं? किसलिए उठा रहा हूं?
यह उसे धीरे-धीरे खयाल में आएगा। और यह वर्षों में भी खयाल आ जाए, तो भी जल्दी है । जन्मों में भी खयाल आ जाए, तो भी जल्दी है।
इसलिए कृष्ण कितना समझाते हैं, यह बड़ा सवाल नहीं है । कितना ही समझाएं, थोड़ा है। और अर्जुन कितनी ही देर लगाए, तो भी जल्दी है। क्योंकि मन सब तरह के आयोजन कर लेगा, थकेगा। जब बिलकुल क्लांत हो जाएगा, जब सब संदेह उठा चुकेगा और संदेह उठाना भी व्यर्थ मालूम पड़ने लगेगा, और जब संदेह भी बासे और उधार मालूम पड़ने लगेंगे, कि यह मैं उठा चुका, उठा चुका, बहुत बार कह चुका, इनसे कुछ हल नहीं होता, तभी शायद वह किरण ध्यान की उस तरफ जाएगी जहां कृष्ण ले जाना चाह रहे हैं।
यह सदा ऐसा ही हुआ है। इससे निराश होने की कोई भी जरूरत है। इस श्रम में लगे ही रहना है।
और ध्यान रहे, उचित यही है कि आप अपनी सारी शंकाएं और सारे संदेह सामने ले आएं, क्योंकि सामने आ जाएंगे, तो मिटने की सुविधा है। भीतर छिपे रहेंगे, तो उनके मिटने का कोई उपाय नहीं है। अर्जुन ईमानदार है। उतना ही ईमानदार होना जरूरी है। वह
सवाल उठाए ही चला जा रहा है। बेशर्मी से उठाए चला जा रहा है। उसमें जरा भी संकोच नहीं कर रहा है। किसी को भी संकोच आने लगता कि अब ठहर जाऊं। लेकिन वह संकोच खतरनाक होगा। भीतर उठते चले जाएंगे, अगर बाहर ठहर गए। तो फिर कृष्ण नहीं जीत सकते हैं।
उठाए ही चले जाएं। वह घड़ी जल्दी ही आ जाएगी, जब संदेह उठने बंद हो जाएंगे। हर चीज की सीमा है।
इस जगत में परमात्मा को छोड़कर और कुछ भी असीम नहीं है। आपका मन तो निश्चित ही असीम नहीं है। आप उठाए चले जाएं, | किनारा जल्दी ही आ जाएगा । किनारा आता नहीं दिखाई पड़ता, क्योंकि आप बेईमान हैं। ठीक से उठाते ही नहीं। जिस दिन किनारा आ जाएगा, उसी दिन छलांग लग सकती है।
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तीसरा प्रश्न : अर्जुन को अभी गीता कही जा रही है। वह अभी ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुआ।' फिर भी कृष्ण उसे संबोधित करते हैं, हे निष्पाप ! ऐसा क्यों ?
क्यों कि
कि कृष्ण उस अर्जुन को संबोधित नहीं करते, जो प्रश्न उठा रहा है। | कृष्ण उस अर्जुन को संबोधित करते हैं, जो प्रश्नों के पीछे खड़ा है। | कृष्ण उस | अर्जुन को संबोधित नहीं करते हैं, जो सामने दिख रहा है हड्डी, मांस, मज्जा का बना हुआ। कृष्ण उस अर्जुन को संबोधित करते हैं, जो इसके पीछे छिपा हुआ चिन्मय, जो परम चैतन्य है। वह निष्पाप है।
और कृष्ण क्यों कहते हैं बार-बार, हे निष्पाप ! ताकि अर्जुन का | ध्यान उस तरफ जा सके कि वह जहां से सवाल उठा रहा है, कृष्ण वहां जवाब नहीं दे रहे हैं। कृष्ण कहीं और गहरे में जवाब ले जा रहे हैं।
यह तो अर्जुन को भी साफ होगा कि निष्पाप वह नहीं है। इसे बताने की कोई जरूरत नहीं; यह तो वह भी जानता है। लेकिन कृष्ण उससे बार-बार कह रहे हैं, हे निष्पाप ! वे चोट कर रहे हैं बार-बार इस बात पर कि तेरे भीतर जो छिपा है, वहां कोई पाप कभी प्रवेश नहीं किया और न प्रवेश कर सकता है। सब पाप ऊपर-ऊपर हैं, सब पुण्य भी ऊपर-ऊपर हैं।