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________________ संकल्प-संसार का या मोक्ष का * मनसविद कहते हैं, अपराधी और राजनीतिज्ञ एक ही कोटि के | और चेहरे पर ऐसे भाव जैसे कांटे चुभ रहे हों। उसने कहा कि जूते लोग हैं। अपराधी भी बिना अपराध किए नहीं रह सकता। क्योंकि | छोटे हैं, और पैरों में बड़ा कष्ट है। तो मित्र ने कहा, तुम इन्हें उतार अपराध करके वह उपद्रव खड़े कर लेता है, और उनके बीच में | क्यों नहीं देते हो? नसरुद्दीन ने कहा कि वह मैं नहीं कर सकता। महत्वपूर्ण हो जाता है। और राजनीतिज्ञ भी बिना उपद्रव खड़े किए __ मित्र कुछ समझा नहीं। उसने पूछा कि कारण न करने का? तो नहीं रह सकता, क्योंकि उपद्रव के बिना उसका कोई मूल्य नहीं, | | नसरुद्दीन ने कहा, बस यही एक मेरे सुख का सहारा है। जब दिनभर कोई अर्थ नहीं। का थका-मांदा. हारा. पराजित. दकान-धंधे से उदास घर वापस इसीलिए युद्ध के समय में बड़े नेता पैदा होते हैं, क्योंकि युद्ध से | | लौटता हूं। पत्नी देखते ही टूट पड़ती है; बकने लगती है, बड़ा उपद्रव और किसी समय में पाना मुश्किल है। इसलिए जिसको | | चीखने-चिल्लाने लगती है। बच्चे अपनी मांगें मौजूद कर देते हैं। बड़ा नेता होना हो, उसे युद्ध को पैदा करवाना ही पड़ता है। | पास में पैसा नहीं है। पूरे दिनभर के इस दुख और पीड़ा के बाद जब आप भी यही कर रहे हैं। उपद्रव खड़े करते हैं, खोजते हैं, | घर जाकर मैं अपने पैर के जूते निकालता हूं, तो मोक्ष का आनंद निर्माण करते हैं; न हों, तो कल्पना करते हैं। ये सारे उपद्रव आपके | | उपलब्ध होता है। जूते उतारते से ही लगता है कि जिंदगी में सुख है। भीतर अपनी छाया, अपने दाग, अपने घाव छोड़ जाते हैं, अपना और कोई सहारा नहीं है सुख का। बस, यह एक जूता ही सहारा है। दुख छोड़ जाते हैं। आपके भीतर एक खंडहर निर्मित हो जाता है। | आप भी अपने दुख को पकड़े हैं। क्योंकि वह दुख ही आपके प्राइमल स्क्रीम, मूल रुदन इस सारे घाव का इकट्ठा रेचन है। जो सुख की छोटी-मोटी झलक है, बस। जब उसको आप उतारकर कुछ आपने इकट्ठा किया है-कूड़ा-कर्कट, दुख-पीड़ाएं, झूठ, | | रखते हैं, थोड़ा-सा लगता है अच्छा। असत्य, धोखे—वह जो आपने एक खंडहर अपने भीतर निर्मित नसरुद्दीन कहता है, ये जूते मैं उतार नहीं सकता। क्योंकि इनके किया है, वह पूरा का पूरा एक चीख में बाहर आ जाए। उसके बाद सिवाय तो जीवन में कोई सुख नहीं है। आप एकदम हलके हो जाते हैं। मन की सारी व्यथा खो जाती है। आप किस-किस बात को सुख कहते हैं, आपने कभी खयाल इतना ही कहना ठीक नहीं; मन ही खो जाता है। किया? लोग काम को, सेक्स को सुख कहते हैं; वह सिर्फ आपका पहचानने की जरूरत नहीं पड़ेगी; अचानक आप पाएंगे कि पंख जूता उतारने से ज्यादा नहीं है। तनाव इकट्ठे हो जाते हैं। दिनभर आप लग गए, आप उड़ सकते हैं। अचानक पाएंगे, ग्रेविटेशन समाप्त तनाव इकट्ठे करते हैं। शरीर से बाहर जाती ऊर्जा के कारण तनाव हो गया; जमीन आपको खींचती नहीं, वजन न रहा; आप निर्भार शिथिल हो जाते हैं। लगता है, सुख मिला। हो गए। कोई चिंता न आगे है. न पीछे है। यह क्षण पर्याप्त है। और महावीर या बद्ध कामवासना को जीतकर आनंद को उपलब्ध यह क्षण बहुत सुखद है। आनंद की अनुभूति आपको बताएगी कि | नहीं होते हैं। चूंकि आनंद को उपलब्ध होते हैं, इसलिए कामवासना रेचन हो गया है। दुख बताता है कि रेचन बाकी है। व्यर्थ हो जाती है। जूता उतारकर सुख अनुभव नहीं करते। सुख और आप रेचन भी नहीं होने देते। हृदयपूर्वक रो भी नहीं सकते, | अनुभव हो रहा है, इसलिए जूते के दुख को झेलने की और सुख चीख भी नहीं सकते। हृदयपूर्वक कुछ भी करने का उपाय नहीं है। | की आशा बनाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। सब अधूरा-अधूरा, झूठा-झूठा करते हैं। और तब अगर पूरी दिनभर के तनाव से भरे हुए जाकर एक फिल्म में बैठ जाते हैं; जिंदगी एक उदास ऊब हो जाए, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। | सुख मिलता है। कैसा सुख मिलता होगा! आंखें और थकती हैं। इसलिए साधक को साहस चाहिए कि जो भीतर दबा है, उसे वह | | लेकिन कम से कम दो घंटे, तीन घंटे के लिए अपने को भूल जाते बाहर फेंक सके। और एक बार भी आप हिम्मत जुटा लें, तो बाहर | | हैं; व्यस्त हो जाते हैं कथा में। व्यस्तता ज्यादा हो जाती है, स्वयं का फेंकना बहुत कठिन नहीं है। और एक बार रस अनुभव होने लगे, | विस्मरण हो जाता है। जैसे ही बोझ अलग हो और रस अनुभव होने लगे...। __ लेकिन जिसको दिनभर स्वयं का विस्मरण रहा हो, जिसको ___ मैंने सुना है, एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन रास्ते से गुजर रहा है। | अहंकार ही न हो, विस्मरण करने को कुछ न हो, उसे तीन घंटा और बड़ी अश्लील, भद्दी गालियां दे रहा है अपने जूतों को। उसके | भुलाने के लिए किसी फिल्म में बैठने की कोई जरूरत नहीं है। एक मित्र ने पूछा कि क्या बात है? और इतने उदास, इतने दुखी, | | उसने जूते ही उतार दिए। 203]
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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