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* संन्यास गुणातीत है और
बेरौनक होगी। उसमें न तो हिटलर जैसा क्रोधी होगा, न स्टैलिन तोड़ सकते हैं। लेकिन ध्यान रहे, तब ऊपर चढ़ने का उपाय भी जैसा हत्यारा होगा। नहीं होगा। उसमें बुद्ध जैसा शांत प्रज्ञा-पुरुष समाप्त हो गया। भी नहीं होगा। उसमें सोए हुए लोग होंगे, झोम्बी की नरक उसी सीढ़ी का नाम है, जिसका स्वर्ग। फर्क सीढ़ी में नहीं तरह-बेहोश, मूर्छा में चलते हुए, सम्मोहित, यंत्रवत। | है; फर्क दिशा में है। जब आप कामवासना के प्रति अंधे होकर उतरते __ अगर आप क्रोध नहीं कर सकते, तो ध्यान रखें, आप करुणा हैं, तो आप नीचे की तरफ जा रहे हैं। और जब कामवासना के प्रति भी नहीं कर पाएंगे। क्योंकि करुणा क्रोध के प्रति साक्षी हो जाने से आप आंख खोलकर सजग होकर खड़े हो जाते हैं, तो आप ऊपर पैदा होती है। और अगर आपके भीतर कामवासना तोड़ दी जाए की तरफ जाने लगे। मूर्छा अधोगमन है, साक्षीत्व ऊर्ध्वगमन है। शारीरिक ढंग से, रासायनिक ढंग से, तो आपके भीतर प्रेम का भी | साधना का कोई परिपूरक नहीं है, कोई सब्स्टीटयूट नहीं है, और कभी उदय नहीं होगा। क्योंकि प्रेम कामवासना का ही शुद्धतम न कभी हो सकता है। कोई सूक्ष्म उपाय नहीं है, जिससे आप रूपांतरण है।
साधना से बच सकें। साधना से गुजरना ही होगा। बिना उससे गुजरे आपके भीतर से बुरा मिटा दिया जाए, तो भला भी मिट जाएगा। | आपका निखार पैदा नहीं होता। बिना उससे गुजरे आपके भीतर वह आपसे अपराध नहीं होगा. यह पक्का है. लेकिन आपमें साधता | केंद्र नहीं जन्मता, जिस केंद्र के आधार पर ही जीवन की परम संपदा का भी जन्म नहीं होगा। और आपके भीतर परमहंस होने की जो | पाई जा सकती है। संभावना है, वह सदा के लिए लोप हो जाएगी।
इसलिए रासायनिक परिवर्तन से कोई क्रांति होने वाली नहीं है। वास्तविक परिवर्तन चेतना का परिवर्तन है, शरीर का नहीं। दूसरा प्रश्नः सात्विक कर्म भी अगर बांधता है, तो _और जो भी बुराइयां हैं, उनसे भयभीत न हों, परेशान न हों। | उसका फल ज्ञान और वैराग्य क्यों कहा गया है? सभी बुराइयां इस भांति उपयोग की जा सकती हैं कि सृजनात्मक हो जाएं। ऐसी कोई भी बुराई नहीं है, जो खाद न बन जाए, और जिससे भलाई के फूल न निकल सकें। और बुराई को खाद बना
+कि ज्ञान और वैराग्य भी बांध सकता है। लेना भलाई के बीजों के लिए, उस कला का नाम ही धर्म है।
II निश्चित ही, कृष्ण की बात उलटी मालूम पड़ती जीवन में जो भी उपलब्ध है. उसका ठीक-ठीक सम्यक उपयोग
है। सात्विक कर्म का फल है, ज्ञान और वैराग्य। जो भी व्यक्ति जान लेता है, उसके लिए जगत में कुछ भी बुरा नहीं और कृष्ण यह भी कहते हैं कि सात्विक कर्म भी बांधता है। लेकिन है। वह तमस से ही प्रकाश की खोज कर लेता है। वह रजस से ही | | साधारणतः तथाकथित साधु-संत समझाते हैं कि वैराग्य मुक्त परम शून्यता में ठहर जाता है। वह सत्व से गुणातीत होने का मार्ग| | करता है, ज्ञान मुक्त करता है। खोज लेता है।
तो कृष्ण सात्विक कर्म के जो फल बता रहे हैं, उन्हें तो और ध्यान रहे, विपरीत मौजूद है, वह आपकी परीक्षा है, साधारणतः लोग समझते हैं कि वे मुक्त करने वाले हैं। लेकिन ध्यान कसौटी है, चुनौती है, निकष है। उस विपरीत को नष्ट कर देने पर | | रहे, सात्विक कर्म से जो भी पैदा होगा, उसकी भी बांधने की मनुष्य की सारी गरिमा मर जाएगी। मनुष्य का गौरव यही है कि वह संभावना है। आप ज्ञान से भी बंध सकते हैं। चाहे तो नरक जा सकता है और चाहे तो स्वर्ग। अगर नरक जाने इसलिए उपनिषद कहते हैं, जो कहता हो मैं आत्मज्ञानी हूं, के सब द्वार तोड़ दिए जाएं, तो साथ ही स्वर्ग जाने की सब सीढ़ियां समझना कि वह आत्मज्ञानी नहीं है। जो कहता हो कि मैं वैराग्य को गिर जाएंगी।
उपलब्ध हो गया हूं, समझना कि उसका राग वैराग्य से हो गया है। ध्यान रहे, जिस सीढ़ी से हम नीचे उतरते हैं, उसी से हम ऊपर संन्यास भी गार्हस्थ बन सकता है। आपके हाथ में है। और चढ़ते हैं। सीढ़ियां दो नहीं हैं। आप इस मकान तक सीढ़ियां चढ़कर गृहस्थी भी संन्यास हो सकती है। आपके हाथ में है। अज्ञान भी आए हैं। जिन सीढ़ियों से चढ़कर आए हैं, उन्हीं से आप उतरेंगे भी। | मुक्तिदायी हो सकता है और ज्ञान भी बंधन बन सकता है। आपके इस डर से कि कहीं सीढ़ियों से कोई नीचे न उतर जाए, हम सीढ़ियां हाथ में है।
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