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हो, तो व्यर्थ की बातों में न पड़ें / शक्ति का सम्यक उपयोग / आत्मस्थ व्यक्ति का समाज पर प्रभाव / चेतना की मौन क्रांति / समाज सुधारक स्वयं को बदलने में उत्सुक नहीं / मार्क्स, लेनिन और माओ की क्रांति / महावीर, बुद्ध और कृष्ण की क्रांति / दैवी संपदा के लक्षण - साधन हैं या साध्य ? / दोनों एक साथ / कौन पहले अंडा-मुर्गी, बीज- वृक्ष / सोचते मत रहें - जीना शुरू करें / बहिर्मुखी व्यक्ति आचरण से, लक्षण से शुरू करे / अंतर्मुखी व्यक्ति अंतःकरण से शुरू करे / बाहर और भीतर एक का ही विस्तार है / आसुरी व्यक्तित्व के लक्षण / पाखंड अर्थात झूठा व्यक्तित्व / आदमी के अनेक चेहरे / झूठ की लंबी श्रृंखला / पुनरुक्ति से झूठ का सच जैसा लगना / शिक्षा, तर्क और गणित झूठ की कुशलता में सहायक / घमंड और अभिमान / क्रोध और कठोर - वाणी / अज्ञान अर्थात स्वयं को न जानना / ज्ञान निजी हो तो प्रज्ञा और उधार हो तो पांडित्य / आसुरी संपदा से बंधन और दैवी संपदा से मुक्ति फलित / अर्जुन का भाव दैवी है, लेकिन उसकी व्याख्या अज्ञान भरी है / हिंसा के प्रति अरुचि दैवी है, लेकिन ममत्व अज्ञान है, आसुरी है / हिंसा तो असंभव है, लेकिन हिंसा का अज्ञानपूर्ण भाव संभव है / बंधन या मुक्ति: एक ही चेतना की दो संभावनाएं / परतंत्रता हमारा ही निर्माण है / स्वतंत्रता का भय / कारागृह की सुरक्षाएं और स्वतंत्रता के खतरे / परतंत्रताएं - परिवार की, देश की, जाति की, समाज की / हमारा पिंजड़ों से लगाव / नेता - परस्पर निर्भर / स्वतंत्रता है— परम साहस, परम जिम्मेदारी ।
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आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं....
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पशुओं में और आदिवासियों में पाखंड और मिथ्याचरण नहीं है, जब कि शिक्षित व सभ्य समाज में वह सर्वाधिक है, तो क्या विकास की लंबी व कठिन यात्रा व्यर्थ गई? तो क्या आदिवासी व्यवस्था वरेण्य है? / पशु को पतित होने की सुविधा नहीं है / पशु दिव्यता का आरोहण भी नहीं कर सकते / पशु प्रकृति आधीन हैं / मनुष्य स्वतंत्र है, इसलिए जिम्मेदार भी / मनुष्य की गरिमा / सभ्यता एक अवसर है / पीड़ा से आनंद की खोज का जन्म / आदिवासीपन वरेण्य नहीं है / गिरने की संभावना में संतुलन व जागरण की चुनौती / यदि संसार में सदा अज्ञान, दुख और संताप रहेगा, तो क्या धर्म कुछ विरले लोगों के लिए ही है? / संसार एक अस्पताल है / स्वस्थ होते ही संसार के बाहर / बीमारी संसार का स्वभाव है – अभिशाप नहीं / संसार : एक शिक्षण स्थल / शिक्षण की पूर्णता मुक्ति है / धर्म का निमंत्रण सभी के लिए है / परंतु विरले ही उस यात्रा पर जाते हैं / व्यर्थ का छूटना / शून्य में पूर्ण का उदय / कठिन लंबी यात्रा / धैर्य का अभाव / सुनने और देखने में हमारा सतत चुनाव / सौ को आमंत्रण दो : दस सुनते हैं, पांच समझते हैं, केवल एक यात्रा पर चलता है / बंधन क्या है और मुक्ति क्या है ? / चेतना का अनंत असीम फैलाव मुक्ति है / सीमा बंधन है / अनेक प्रकार का बंधन शरीर का, मृत्यु का, क्रोध-मोह-लोभ का / आसुरी संपदा बांधती है / लोभी व्यक्ति सदा सीमा में / जंजीरों को आभूषण समझकर हम उन्हें बचाते हैं / अपने को असीम बनाने की चेष्टा ही ध्यान है, प्रार्थना है, साधना है / न मैं शरीर हूंन मन न भाव / द्रष्टा - साक्षी - सबसे मुक्त है / तादात्म्य है— बंधन का कारण / जिससे भी आनंद बढ़े, वह कर्तव्य / जगत एक प्रतिध्वनि है / जो दोगे, वही मिलेगा / देर-अबेर के कारण भ्रांति / कर्तव्य-कर्म में प्रवृत्ति - अकर्तव्य-कर्म से निवृत्ति / आसुरी व्यक्ति का निष्फल श्रम / शुद्धि अर्थात समस्वरता / अशुद्धि अर्थात भीतर की विक्षिप्तता / आसुरी व्यक्ति जीवनको रहस्य नहीं मानता / रहस्य के खोते ही काव्य, सौंदर्य, परमात्मा सब खो जाता है / तर्क और विज्ञान से जीवन में उदासी और ऊब का बढ़ना / अविद्या अर्थात जो आसुरी संपदा को बढ़ाए / सौंदर्य है समग्रता में / कोई रहस्य नहीं - तो कोई गंतव्य नहीं, खोज नहीं / नास्तिकों का भोगवाद / दैवी संपदा वाले व्यक्ति का जीवन : एक श्रृंखलाबद्ध सचेतन विकास / तर्क बुद्धि नहीं है / बुद्धि अर्थात जो जीवन के अंतर्तम रहस्य में प्रवेश कराए / दैवी संपदा में ऊंचे चढ़ने का श्रम ।