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शोषण या साधना ... 349
आसुरी संपदा वाले व्यक्ति जगत को अर्थहीन और झूठ मानते हैं, ज्ञानीजन भी जगत को माया, मिथ्या कहते हैं / दोनों में क्या भिन्नता है? / दोनों के प्रयोजन बिलकुल भिन्न / पहला जीवन की क्रांति से, साधना से बचना चाहता है / दूसरा और सत्यतर व श्रेष्ठतर जीवन की ओर इशारा कर रहा है | कुछ करना नहीं है-अगर जीवन अर्थहीन, लक्ष्यहीन, सांयोगिक दुर्घटना है / दैवी संपदा वाले के लिए सत्य कसौटी है / आसुरी संपदा वाले के लिए सुख कसौटी है / विज्ञान आसुरी संपदा वाले से ही राजी है / ज्ञात, अज्ञात और अज्ञेय / अज्ञेय को जानने की शर्तः जानने वाला खो जाता है / विज्ञान सार्वजनिक ज्ञान है-धर्म पूर्णतः निजी / प्रत्येक को स्वयं गुजरना होगा/धर्म विज्ञान है-अंतर्जगत का / प्रज्ञावान पुरुष को हमारे जीवन का जो आसुरीपन दिखाई देता है, वह हमें कैसे दिखे ? / प्रज्ञा पुरुष का सानिध्य खोजें / शास्त्र को धोखा दिया जा सकता है / सत्संग-जो जानता है, उसके पास होना / श्रेष्ठ चेतना के निकट तुलना का बोध / प्रयोग से ही स्वाद आएगा / सही कोई हो, तो ही अपने गलत होने की पहचान / प्रज्ञावान पुरुष सदा उपलब्ध है / संतों के अनेक गुप्त अंतर्वर्तुल / संतों की वाणी का विचार नहीं-मनन-उसे हृदय में उतारना / शास्त्र पाठ का रहस्य / हृदय में बीजारोपण / साहस हो तो गुरु-शरण / कमजोर का समर्पण से डरना / शक्तिशाली के लिए गुरु / कमजोर के लिए शास्त्र / शास्त्र का रोएं-रोएं में समा जाना / कहीं अपने को खोना होगा / गलत के बोध से गलत का छूटना शुरू / सत्य अज्ञेय है, व्यक्ति का परमात्मा से मिलन असंभव है, तो क्यों कहा जाता है कि-स्वयं को जानो? / ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का खो जाना / त्रिवेणी का खो जाना, सागर का बचना / मिटो–ताकि हो सको / सागर में खोकर बूंद का सागर हो जाना / शून्य की भाषा-बूंद खो गई सागर में / पूर्ण की भाषा-सागर खो गया बूंद में / आपका होना ही कष्ट है / अधिक सुख में अधिक दुख का बोध / स्वयं मिटना ही स्वयं का ज्ञान है / आसुरी संपदा का लक्षणः सदा दूसरा ही गलत है / सीखने का आधार-अज्ञान का बोध / वासना दुष्पूर है / न दमन, न भोग-वरन साक्षित्व / बोधकथा : सोहम-दासोहम-सदासोहम-दास दासोहम / वासनाओं का जागरूक साक्षी-भाव से दर्शन / मिथ्या सुख में संतोष-आसुरी स्वभाव / परिपूर्ण असंतुष्ट चेतना द्वारा परमात्मा की खोज / खोज के दो आयामः चेतना या पदार्थ / परिग्रह-शोषण और हिंसा के बिना असंभव / अंतर्यात्रा प्रारंभ होते ही बहिर्यात्राएं बंद / बूढ़े भी बाल-बुद्धि / शोषण या साधना / तिजोरी या आत्मा / अरबपति की भी मांग जारी है।
ऊर्ध्वगमन और अधोगमन ... 367
आसुरी गुण वाले व्यक्तियों से पृथ्वी भरी पड़ी है; किंतु देव तो करोड़ों में कोई एक होता है; ऐसा क्यों है? / दो विरोधों के बीच एक अनिवार्य संतुलन है / हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हम हैं / भीतर की संपदा का बाहर प्रतिफलन / एक ही सिक्के के दो पहलू / जीवन की तीन दशाएं : आसुरी, दैवी
और निर्विकल्प / नरक, स्वर्ग और मोक्ष / देवता भी मुक्त नहीं हैं / मोक्ष-नरक और स्वर्ग दोनों से मुक्ति / एक पहलू है, तो दूसरा भी बच रहेगा / साक्षी में दोनों का खो जाना / आसुरी और दैवी संपदा व्यक्ति में बराबर-बराबर है, तो जगत में आसुरी संपदा क्यों फलती-फूलती है, और दैवी संपदा क्यों दुर्लभ है? / हमारी अचेतन वासनाएं : धन, पद, प्रतिष्ठा की / सफल आदमी की भीतरी पीड़ा / बुरे आदमी की सफलता–साधु-चित्त के लिए-आत्मघात जैसी / बुरा आदमी सफल हो ही नहीं सकता / बोध-कथा ः जब सिकंदर को सोने की रोटी दी गई / बुरे का सफल दिखना ः हमारे असाधु-चित्त का लक्षण / सफलता की मेरी परिभाषा : जो समाधि में डूबे / आसुरी संपदा कभी फूली-फली नहीं / बुराई है ढलान, अच्छाई है चढ़ान / पीछे लौटना हमेशा आसान / ऊपर जाना हमेशा श्रमयुक्त / आसुरी संपदा ग्रेविटेशन की तरह नीचे खींचती है / नीचे गिरने की क्षमता-सफल होने में सहयोगी / धर्म राजनीति से उलटी यात्रा / दैवी संपदा के लिए शिक्षण का अभाव / जन्मों-जन्मों की आदतें—आसुरी संपदा वाली / ऊर्ध्वगमन का प्रयास