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देवीय लक्षण ...297
जब आप बोलते हैं, तभी वाणी के माध्यम से हमें अपना शिखर थोड़ा दिखाई पड़ता है, ऐसा क्यों? / मौन हम नहीं समझ पाते / मुझे सुनते-सुनते थोड़ी देर को तुम्हारा मन रुक जाता है / मन के रुकते ही कुछ प्रतीति / सत्य को शब्द में कहना असंभव / मौन सीखना होगा / मौन की कला है-ध्यान / मात्र शब्दों पर टिके हमारे प्रेम संबंध / मौन-प्रेम को समझना कठिन / मौन में प्रतीति हो, तो ही वास्तविक / मैं बोलता है, ताकि मौन के लिए तुम तैयार हो सको / प्रार्थना जीवन की शैली है-इसका क्या अर्थ है? प्रार्थना से भीतर छिपे परमात्मा का आविष्कार / प्रार्थना की कलाः संयोग को काटना-स्वभाव को बचाना / प्रार्थना जीवन का एक अलग खंड नहीं हो सकती / प्रार्थना श्वास जैसी बन जाए / उठना-बैठना कैसे प्रार्थनापूर्ण बन जाए? / हर छोटा से छोटा कृत्य प्रेमपूर्ण हो / प्रार्थना जीवन की आधारशिला हो / सातत्य का बल / अस्तित्व में पीछे लौटना नहीं होता, तो साधु एक क्षण में असाधु कैसे हो जाता है? / द्वैत स्थिति से वापसी-अद्वैत से नहीं / साधु असाधु एक दूसरे के विपरीत छोर हैं / संत दोनों के पार है / अहिंसा अर्थात दूसरे को दुख पहुंचाने की वृत्ति का त्याग / हमारी उलटी हालतें: दूसरे के दुख में सखी होना और सख में दखी / अहिंसा कहां से शरू करें? दूसरे के दुख में दुखी तथा सुख में सुखी हों / दूसरे के सुख-दुख में डूब कर भी साक्षी-भाव का बना रहना / सत्य अर्थात भीतर-बाहर एक जैसे होना / क्रोध का छिपा बारूद अक्रोध अर्थात अखंड शांति / अपेक्षाओं के टूटने पर क्रोध / दूसरे की नियति के स्वीकार से अक्रोध / अभय, अहिंसा, अक्रोध-सब संयुक्त / एक सधे, तो शेष सब सध गए / भोग का रसः त्याग का रस / देने का आनंद / ज्यादा धन हो, तो ज्यादा पकड़ने की वृत्ति / निर्धन का दुख ः पकड़ने को कुछ नहीं / धनी का दुखः छोड़ने की हिम्मत नहीं / त्याग अर्थात छोड़ने की कला / अशांति कम हो, तब शांति की खोज सरल / आग लगने पर कुआं खोदने की मूढ़ता / औषधियों का दुष्टचक्र / शांत रहना जीवन शैली बन जाए / शांति का कवच-साधक के लिए उपयोगी / विक्षिप्त दुनिया / सब की अपनी परेशानियां / पर निंदा का रस / निंदा का प्रयोजनः अपनी बुराई को छिपाना / पीठ पीछे निंदा / मित्रता असंभव हो गई है / खेल के नियम / समाज की व्यवस्था से संघर्ष में शक्ति का क्षण अवांछित / व्यर्थ की उलझनों से बचना-दैवी संपदा का लक्षण / नियम तोड़ने का मजा-आसुरी लक्षण / दैवी संपदा का आधारभूत लक्षण–अहंकार शून्यता / अहंकार का पूजित होना असंभव है / मिटने की अभीप्सा : दैवी गुण।
आसुरी संपदा ... 315
अति से ही क्रांति होती है-इसे समझाएं / अति की पीड़ा से छलांग / आधी अशांति से नहीं चलेगा / आत्मघात या आत्म-क्रांति / अशांति-दुख-हमारा ही अर्जन है / पानी का अतिक्रमण-बर्फ बन कर या भाप बन कर / कुनकुनेपन से नई यात्रा असंभव / दो मार्ग हैं छलांग केः पूर्ण शांति या पूर्ण तनाव / झेन और सूफी पद्धतियों में पूर्ण तनाव से छलांग की कोशिश / नब्बे डिग्री पर कहीं रुकें तो विक्षिप्तता की संभावना / पहला मार्ग अकेले भी साध सकते हैं। दूसरे मार्ग के लिए अनिवार्यरूपेण गुरु की जरूरत है / पचास-साठ डिग्री के बाद गुरु चाहिए, जो सौ डिग्री तक पहुंचा दे / आश्रम, मानेस्ट्रीज, स्कूल और ग्रुप का विशेष उपयोग / पहले मार्ग में धोखे की संभावना अधिक / दूसरे पर बड़ी व्यवस्था, योग्य निरीक्षण और पूरा समर्पण चाहिए | कृष्ण पहले मार्ग की बात कर रहे हैं / मार्ग का निदान जरूरी / सामाजिक क्रांति का आत्म-क्रांति से कितना और कैसा संबंध है? / व्यक्ति की शक्ति और समय सीमित है / समाज की समस्याएं तो अंतहीन हैं / समाज तो भीड़ है-अज्ञान और पागलपन से भरे लोगों की / केवल बुद्ध पुरुषों का समाज ही समस्याओं के पार होगा / सुधार का प्रयास-और नई समस्याओं का जन्म / शिक्षा के कारण बढ़ती हुई नई समस्याएं । चालाकी, बेईमानी और महत्वाकांक्षा का बढ़ना / धनी मुल्कों का दुख / गलत आदमी का शिक्षित, धनी और स्वस्थ होना खतरनाक / आत्मक्रांति करनी