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गीता-दर्शन अध्याय 16
देवी संपदा का अर्जन ... 281
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मनुष्यः एक दुविधा, एक द्वंद्व / पशु या परमात्मा, नरक या स्वर्ग-एक ही ऊर्जा की दो दिशाएं / बुरा आदमी भी तपस्वी / मनुष्य का गहन दायित्व / भगवान या शैतान : आपके ही दो छोर / दो यात्रा पथ / शास्त्र को काव्य की तरह समझें-गणित और विज्ञान की तरह नहीं / अनुभूतियों की चर्चा काव्य में ही संभव / अपनी समग्रता से ही डूबना होगा / अनुभोक्ता और अनुभूति का एक हो जाना / गीता एक काव्य है / बड़ी श्रद्धा, सहानुभूति और प्रेम में ही रहस्य का खुलना / गीता आत्मस्थ अनुभूति बन जाए / दैवी संपदा और आसुरी संपदा को प्राप्त पुरुषों के लक्षण / संपदा अर्थात विनिमय का माध्यम / संसार और अध्यात्म की भिन्न संपदाएं / आसुरी संपदा से दिव्यता को खरीदने की भ्रांति / क्रोधी व्यक्ति की हिंसक साधना / तपस्वी का अहंकार-आसुरी / त्याग किसी लोभ के कारण हो-तो आसुरी / क्या है आसुरी, क्या है दैवी-स्पष्ट विभाजन जरूरी / गलत साधन से ठीक साध्य तक पहुंचना असंभव / प्रकृति का साम्यवाद / साधु अर्थात जिसने अपनी दैवी संपदा का उपयोग कर लिया / बच्चे में दोनों संपदाएं बराबर मात्रा में / बच्चा आज नहीं कल विकृत होगा ही / दैवी संपदा का पहला लक्षण-अभय / निर्भयता अभय नहीं है / कायर और बहादुर-दोनों भयभीत / अभय अर्थात भय का अभाव / धन, पद, प्रतिष्ठा में मृत्यु के भय को छिपाना / अभय हो, तो ही अहिंसा संभव / आत्मभाव जगे, तो ही अभय का जन्म / अमृत की प्रतीति हो, तो ही ब्रह्म में छलांग / पूरी तरह . से मिटने की तैयारी चाहिए / दूसरा लक्षणः अंतःकरण की शुद्धि / समाज द्वारा संस्कारित झूठा अंतःकरण / बच्चे के प्रथम सात वर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण / अर्जुन का युद्ध में उतरने से डरनाः सामाजिक संस्कार आधारित / शुद्ध अंतःकरण अर्थात समाज की मान्यताओं से मुक्त अंतःकरण / समाज के बदलते हुए मापदंड / अशुद्ध अर्थात कुछ अन्य, कुछ विजातीय का मिश्रण / तीसरा लक्षण ः ज्ञानयोग में दृढ़ स्थिति / आसुरी-जीवन-मूर्छा में दृढ़ स्थित / ज्ञानयोग में अर्थात होश में दृढ़ स्थित / मूर्छा में यंत्रवत व्यवहार / दूसरों द्वारा परिचालित व्यक्ति / मन का नौ हिस्सा अचेतन है / होश का बढ़ना और अचेतन का घटना / समस्त साधनाएं होश बढ़ाने के लिए / आधारभूत लक्षण: दान-देने का भाव / स्वयं को बांटना / बांटने से अहंशून्यता / छीनने से अहंकार सघन / दान-प्रेम का सार है / छीनना-घृणा का आधार है / दान और प्रेम से इंद्रियां शांत / इंद्रियों को दबाने से अशांति का बढ़ना / यज्ञ अर्थात अंतस अग्नि को जलाने की विधि / सारा जीवन अग्नि का खेल है / योगाग्नि में अहंकार का जल जाना / स्वाध्याय अर्थात स्वयं का सतत अध्ययन / स्वाध्याय के निष्कर्षों के अनुसार स्वयं को बदलना तपश्चर्या है / जीवन के सभी पहलुओं पर सरलता की स्थापना करना / जटिल में अहंकार को आकर्षण / सदा सरल को चुनें / दैवी संपदा का द्वारः निरअहंकारिता।