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* संबोधि और त्रिगुणात्मक अभिव्यक्ति
गए। उस फिनाइल को पूरा पी लेने से उनको इतने दस्त और कै हुए कि उनका पागलपन निकल गया । वे बिलकुल ठीक हो गए। लेकिन छः महीने के लिए रखे गए थे। अधिकारी तो मानने को तैयार नहीं थे। अधिकारी को तो सभी पागल कहते हैं कि हम ठीक हो गए। ऐसा कोई पागल है, जो कहता है हम ठीक नहीं हैं !
तो वे अधिकारियों से कहें कि मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं, अब मुझे कोई गड़बड़ नहीं है। मुझे बाहर जाने दो। अधिकारी हंसें और टाल दें कि ठीक है, वह तो सभी पागल कहते हैं।
वे मित्र मुझे कहते थे कि तीन महीने जब तक मैं पागल था, तब तक तो स्वर्ग में था, क्योंकि मुझे पता ही नहीं था कि क्या हो रहा है चारों तरफ। बाकी तीन महीने असली पागलपन के रहे। मैं हो गया ठीक और सारे पागल... । कोई मेरी टांग खींच रहा है; कोई मेरे सिर पर हाथ फेर रहा है। और मैं बिलकुल ठीक! और अब यह बरदाश्त के बाहर कि यह सब कैसे सहा जाए ! न रात सो सकते हैं ... । और तीन महीने तक कुछ पता नहीं था। क्योंकि यह खुद भी यही कर रहे थे। और इस भाषा के अंतर्गत थे, इसके बाहर नहीं थे।
बुद्ध पागलखाना छोड़कर बाहर हो गए हैं। इसलिए नहीं कि सभी को पागलखाना छोड़कर बाहर हो जाना चाहिए। बुद्ध को ऐसा घटा। इसको ठीक से समझ लें।
यह बुद्ध की नियति है। यह बुद्ध का स्वभाव है। यह बुद्ध के लिए सहज है, स्पांटेनियस है। ऐसा उनको घटा कि वे छोड़कर जंगल में चले गए। कोई आप छोड़कर चले जाएंगे, तो बुद्ध नहीं हो जाएंगे। अगर आपका स्वभाव यह हो, अगर आपको यही सहज हो, तो आप कुछ भी करें, आप संसार में रह न सकेंगे। आप · धीरे-धीरे सरक जाएंगे। यह कोई चेष्टा नहीं है। यह अपने स्वभाव का अनुसरण है।
लेकिन कृष्ण का ऐसा स्वभाव नहीं है। वे पागलखाने में खड़े हैं। और मजे से खड़े हैं। निश्चित ही, पागलखाने में जो खड़ा है, उसे पागलों के साथ व्यवहार करना है। इसलिए कृष्ण बहुत बार दिखाई पड़ेंगे कि धोखा देते हैं, झूठ बोलते हैं, युद्ध करते हैं। वह पागलों की भाषा है। वहां झूठ ही व्यवहार है। वहां धोखा ही नियम है। वहां युद्ध हर चीज की परिणति है।
और इसीलिए कृष्ण बड़े बेबूझ हो जाते हैं । उनको समझना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि हम साधु को हमेशा गैर-संसारी की तरह देखे हैं। तो गैर-संसारी साधु का व्यवहार अलग बात है। कृष्ण बिलकुल संसार में साधु हैं। इसलिए उनके और बुद्ध के
व्यवहार को तौलना ही मत।
अगर बुद्ध को भी संसार में रहना हो, तो कृष्ण जैसा ही व्यवहार करना पड़ेगा । और कृष्ण को अगर जंगल में झाड़ के नीचे बैठना हो, तो बुद्ध जैसा व्यवहार करना पड़ेगा। धोखा किसको देना और | किसलिए देना है? यहां जो चारों तरफ लोग इकट्ठे हैं, इनके बीच अगर जीना है, तो इनके ठीक इन जैसे होकर जीना पड़ेगा।
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पर फर्क यही है कि आप भी दे रहे हैं धोखा, लेकिन आप बेहोशी में दे रहे हैं और कृष्ण पूरे होश में दे रहे हैं। आप धोखा दे रहे हैं कर्तृत्व-भाव से । कृष्ण धोखा दे रहे हैं बिलकुल नाटक के एक अंग की भांति । वे अभिनेता हैं। धोखा उनको छू भी नहीं रहा है। उनके लिए एक खेल से ज्यादा नहीं है।
ऐसा समझें कि आपके बच्चे घर में खेल खेल रहे हैं। और आप भी फुरसत में हैं और आप भी उनमें सम्मिलित हो गए हैं। और | उनकी गुड्डी का विवाह रचाया जा रहा है। और गुड्डे की बारात निकलने वाली है और आप भी उसमें सम्मिलित हैं। तो आपको | बच्चों जैसा ही व्यवहार करना पड़ेगा, नहीं तो बच्चे आपको खेल में प्रविष्ट न होने देंगे। आप यह नहीं कह सकते - यह नियम के भीतर होगा - आप यह नहीं कह सकते कि यह गुड्डी है; इसका | क्या विवाह कर रहे हो ? गुड़ियों का कहीं विवाह होता है ? यह सब | फिजूल है। तो आप खेल का नियम तोड़ रहे हैं; फिर आपको खेल के बाहर होना चाहिए।
आपको गुड्डी को मानना पड़ेगा कि जैसे वह कोई सजीव युवती है। और उसी तरह व्यवहार करना पड़ेगा। लेकिन एक फर्क होगा, बच्चों के लिए वस्तुतः वह गुड्डी नहीं रही है। और आपके लिए वह फिर भी गुड्डी है। और आप व्यवहार कर रहे हैं बच्चों के साथ कि खेल जारी रहे।
जैसे कोई प्रौढ़ व्यक्ति बच्चों के साथ खेलता है, वैसे कृष्ण | संसार में हैं। इसलिए स्वभावतः, महावीर को मानने वाले, बुद्ध को | मानने वाले कृष्ण के प्रति एतराज उठाएंगे, कि यह किस तरह की भगवत्ता है! हम सोच ही नहीं सकते कि भगवान और धोखा दे, झूठ बोले ! उसे तो प्रामाणिक होना चाहिए।
पर आप जिन भगवानों से तौल रहे हैं, वे संसार के बाहर हैं। आप उस आदमी से तौल रहे हैं इस आदमी को, जो खेल में सम्मिलित नहीं है, अलग बैठा है। और यह आदमी बच्चों के साथ खेल रहा है। इन दोनों को आप तौलें मत । इनके नियम अलग हैं।
कृष्ण का प्रयोग बड़ा अनूठा है । बुद्ध और महावीर का प्रयोग
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