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________________ गीता दर्शन भाग-7* पास और कोई उपाय नहीं है। लेकिन मेरा ऐसा कोई अनुभव नहीं है। मेरी नियति है, मेरा स्वभाव है। कजानजाकिस लेखक है, विचारक है, शब्दों का मालिक है। ये बुद्ध भी जन्मों-जन्मों में वृक्ष के नीचे बैठ-बैठकर इस जगह लेकिन फिर उसके जीवन में भी एक घटना घटी और तब उसे पता | | पहुंचे हैं, जहां वे पत्थर की मूर्ति की तरह शांत हो गए हैं। चला। वह पहली दफा एक स्त्री के प्रेम में पड़ा। जब उस स्त्री ने उसे । सबसे पहले बुद्ध की मूर्तियां बनीं। वैसा मूर्तिवत आदमी ही प्रेम से देखा, उसे निकट लिया और वह उसके प्रेम का पात्र बना, कभी नहीं हुआ था। बुद्ध की मूर्ति बनानी हो, तो बस पत्थर की ही तो जब वह वापस लौटा, तब अचानक उसने पाया कि उसके पैर बन सकती है। क्योंकि वे पत्थर जैसे ही, पाषाण जैसे ही ठंडे और नाच रहे हैं। अब वह कहना चाहता है, लेकिन अब शब्द फिजूल हैं। शांत और चुप, सारी क्रियाओं से शून्य हो गए थे। अब वह कुछ लिखना चाहता है, लेकिन कलम बेकार है। और । उर्दू में, अरबी में शब्द है, बुत। वह बुद्ध का अपभ्रंश है। मूर्ति जिंदगी में पहली दफा वह आकर अपने कमरे के सामने नाचने लगा। | के लिए जो शब्द है, वह है बुत। बुत का मतलब है बुद्ध। बुद्ध के और तब उसे समझ में आया कि वह ज़ोरबा जो कह रहा था, क्या | नाम से ही बुत शब्द पैदा हुआ। और बुद्धवत बैठने का मतलब है, कह रहा था। लेकिन उसके पहले उसे कुछ भी पता नहीं था। मूर्तिवत बैठ जाना। बुद्धवत बैठने का अर्थ है, बुत की तरह हो आपका व्यक्तित्व अभिव्यक्ति का माध्यम है। अनुभूति तो एक | जाना। जरा-सा भी कंपन न रह जाए, नाच तो बहुत दूर की बात ही होगी। लेकिन आपके व्यक्तित्व से गुजरकर उसकी अभिव्यक्ति है। जरा-सा झोंका भी न रह जाए भीतर। नाच तो बिलकुल दूसरी बदल जाएगी। अति है, जहां भीतर कुछ भी थिर न रह जाए, सब नाच उठे, सब तो कृष्ण की अभिव्यक्ति का माध्यम अलग है। जन्मों-जन्मों में गतिमान हो जाए। वह माध्यम निर्मित हुआ है। अनंत जन्मों में कृष्ण ने वह नृत्य सीखा तो बुद्ध और कृष्ण का कहां मेल बिठाइएगा? लेकिन जो घटना है। अनंत जन्मों में वह बांसुरी बजाई है। घटी है, वह एक ही है। बुद्ध ने जन्मों-जन्मों तक मौन होना साधा बुद्ध ने जन्मों-जन्मों में, बुद्ध ने कहा है...। है। जब वह महाघटना घटी, तो वे अवाक होकर मौन हो गए। बुद्ध के पिता ने जब बुद्ध वापस घर लौटे, तो बुद्ध को कहा कि | कृष्ण ने जन्मों-जन्मों तक नाचा है सखियों के साथ, उनकी तू नासमझ है। और अभी भी नासमझ है। मैं तेरा पिता हूं और मेरे प्रेयसियों के साथ। वह यात्रा लंबी है। जब वह घटना घटी, तो वह पास पिता का हृदय है; मेरे द्वार अभी भी खुले हैं। अगर तू वापस नाच से ही प्रकट हो सकती है। लौटना चाहे, तो वापस आ जा। यह छोड़ भिखारीपन। हमारे वंश | फिर बुद्ध संसार को छोड़कर संन्यस्त हो गए हैं। कृष्ण संन्यस्त में कभी कोई भिखारी नहीं हुआ। नहीं हैं। कृष्ण संसार में खड़े हैं। इसलिए उनका आचरण और तो बुद्ध ने कहा है कि क्षमा करें। आपके वंश से मेरा क्या संबंध व्यवहार बिलकुल अलग-अलग होगा। है! मैं सिर्फ आपसे आया हूं, आपसे पैदा नहीं हुआ। जहां तक मुझे __ अगर किसी को पागलखाने में रहना पड़े, तो उचित है कि वह याद आते हैं अपने पिछले जन्म, मैं जन्मों-जन्मों का भिखारी हूं। पागलों को समझा दे कि मैं भी पागल हं; नहीं तो पागल उसकी मैं पहले भी भीख मांग चुका हूं। मैं पहले भी संन्यासी हो चुका हूं। जान ले लेंगे। और उचित है कि वह चाहे नकल ही करे, अभिनय यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है। यह किसी लंबे क्रम का एक ही करे, लेकिन पागलों जैसा ही व्यवहार करे। पागलखाने में रहना हिस्सा है। | हो, तो समझदार बनकर आप नहीं रह सकते। नहीं तो बुरी तरह जहां तक मुझे अपनी याद है, बुद्ध ने कहा है कि मैं पहले भी पागल हो जाएंगे। पागलखाने में सेनिटी बचाने का, अपनी बुद्धि ऐसा ही हुआ हूं। और हर बार यात्रा अधूरी छूट गई। इस बार यात्रा बचाने का एक ही उपाय है कि आप पागलों से दो कदम आगे हो पूरी हो गई। जिस सूत्र को मैं बहुत जन्मों से पकड़ने की कोशिश | जाएं, कि पागलों के नेता हो जाएं। फिर आप पागल नहीं हो सकते। कर रहा था, वह मेरी पकड़ में आ गया। और तुमसे मेरा परिचय मेरे एक मित्र पागलखाने में बंद थे। सिर्फ संयोग की बात, छः बहुत नया है। मुझ से मेरा परिचय जन्मों-जन्मों का है। तुम्हारे कुल महीने के लिए बंद किए गए थे, लेकिन तीन महीने में ठीक हो गए। का मुझे कुछ पता नहीं, लेकिन मेरे कुल का मुझे पता है कि मैं जन्मों | | और ठीक हो गए एक सांयोगिक घटना से। पागलपन की हालत का भिखारी हूं। और सम्राट होना सांयोगिक था। यह भिक्षु होना में फिनाइल का एक डब्बा पागलखाने में मिल गया, वह पूरा पी
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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