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________________ * हे निष्पाप अर्जुन * लोकों की यात्राएं कर रहा है! न मालूम मन किस काम में संलग्न योगी, कृष्ण कहते हैं, सोता है तब भी सोता नहीं। उसका कुल है। तो आप यहां नहीं हैं। आप यहां बेहोश हैं। मतलब इतना है कि उसके तम का जो बंधन है, वह टूट गया। बुद्ध कहते हैं, बस एक ही है साधना, कि तुम जहां हो, वहां प्रमाद नहीं है। विश्राम करता है। लेकिन भीतर उसके कोई जागा ही तुम्हारी चेतना भी हो। तुम्हारा पैर उठे रास्ते पर, तो तुम्हारी चेतना रहता है, जागा ही रहता है। कोई दीया जलता ही रहता है। वहां कोई भी पैर के साथ उठे। तुम होशपूर्वक हो जाओ। तुम पानी पीओ, पहरेदार सदा बना ही रहता है। ऐसा कभी नहीं कि घर खाली हो तो वह पीना यंत्रवत न हो। तुम्हारा पूरा होश पानी के साथ तुम्हारे और पहरेदार सोया हो। वहां कोई पहरे पर बैठा ही रहता है। भीतर जाए। इस पहरेदार को संतों ने—कबीर ने, दादू ने, नानक ने-सुरति बद्ध ने कहा है. तम्हारी श्वास बाहर जाए. तो होशपर्वक: | कहा है। सुरति का अर्थ है, कोई स्मरणपूर्वक जगा रहे। स्मृति का तुम्हारी श्वास भीतर आए, तो होशपूर्वक। बुद्ध की सारी प्रक्रिया | ही रूप है सुरति। शब्द बुद्ध का है, स्मृति। फिर बिगड़ते-बिगड़ते, इस अनापानसती-योग पर निर्भर है। कबीर तक आते-आते वह लोकवाणी में सुरति हो गया। बड़ा अनूठा प्रयोग है अनापानसती-योग का, बड़ा सरल, कि कबीर कहते हैं, जैसे कोई कुलवधू, कोई गांव की वधू कुएं से श्वास का मुझे बोध बना रहे। जब श्वास नाक को छुए, भीतर जाती| पानी भरकर घर लौटती है, तो सिर पर तीन-तीन मटकियां रख श्वास, तो मुझे पता रहे कि उसने स्पर्श किया नाक का। फिर नाक | लेती है। हाथ से पकड़ती भी नहीं। पास की सहेलियों से गपशप के भीतरी अंतस हिस्सों का स्पर्श किया; फिर श्वास भीतर गई, | भी करती है, हंसी-मजाक भी करती है, गीत भी गाती है और रास्ते फेफड़ों में भरी, पेट ऊपर उठा; फिर श्वास वापस लौटने लगी। | पर चलती है। लेकिन उसकी सुरति वहीं लगी रहती है ऊपर, कि उसका आने का मार्ग, जाने का मार्ग, दोनों का बोध हो। वे घड़े गिर न जाएं! उसने हाथ भी नहीं लगाया हुआ है। सिर्फ सुरति 'बर्मा में इसे वे विपस्सना कहते हैं। विपस्सना का मतलब है, | के सहारे ही सम्हाला हुआ है। वह सब बात करती रहेगी, हंसती देखना। देखते रहना, ध्यानपूर्वक देखते रहना। रहेगी, रास्ते पर चलती रहेगी; कोई घड़ा गिरने को होगा, तो कोई भी एक क्रिया को ध्यानपूर्वक देखते रहने का परिणाम परम | तत्काल उसका हाथ पहुंच जाएगा। उसकी स्मृति का धागा पीछे बोध हो सकता है। और कोई व्यक्ति अगर अपने दिनभर की सारी | बंधा हुआ है। उसका ध्यान वहीं लगा हुआ है। क्रियाओं को देखता रहे, तो उसका प्रमाद टूट जाएगा। जब प्रमाद आपकी क्रियाएं ध्यानपूर्वक हो जाएं, तो अप्रमाद फलित होता टूट जाता है, तो तम का बंधन गिर जाता है। | है। और आपकी क्रियाएं गैर-ध्यानपूर्वक हों, तो प्रमाद होता है। लेकिन हम सब बेहोश जीते हैं। हम जो भी करते हैं, वह ऐसा हे अर्जुन, सब देहाभिमानियों को मोहने वाले तमोगुण को करते हैं, जैसे हिप्नोटाइज्ड हैं। कुछ होश नहीं; चले जा रहे हैं, किए अज्ञान से उत्पन्न हुआ जान। जा रहे हैं, यंत्रवत। और अज्ञान का अर्थ यहां जानकारी की कमी नहीं है। अज्ञान का यह यंत्रवतता, आलस्य, प्रमाद, निद्रा, ये तम की आधारशिलाएं - अर्थ है, आत्म-अज्ञान, अपने को न जानना। हैं। इसलिए कृष्ण गीता में कहते हैं कि योगी, जब आप सोते हैं, जो अपने को नहीं जानता, वह जागेगा भी कैसे? वह किसको तब भी सोता नहीं। जगाए? कौन जगाए? और जो जागा हुआ नहीं है, वह अपने को __ आप तो जब जागते हैं, तब भी सोते ही हैं। आपका जागना भी | कभी जानेगा कैसे? वे दोनों एक-दूसरे पर निर्भर बातें हैं। जो जागना नहीं है, सिर्फ नाममात्र जागना है। आप खुद भी कोशिश | जितना ही जागता है, उतना ही स्वयं को पहचानता है। जो जितना करें, तो कई बार दिन में अपने को सोया हुआ पकड़ लेंगे। जरा ही स्वयं को पहचानता है, उतना ही जागता चला जाता है। परम चौंकाएं अपने को...। जागरण आत्मज्ञान बन जाता है। गुरजिएफ कहता था, एक झटका देकर खड़े हो जाएं कहीं पर, तमोगुण अज्ञान है। रजोगुण आसक्ति है। सत्वगुण सूक्ष्म तो आप अचानक पाएंगे कि अभी तक सोया था। पर वह एक अभिमान है, शुद्ध अभिमान है। ये तीन बंधन हैं। झटके ही में थोड़ी-सी झलक आएगी, जैसे किसी ने नींद में हिला | क्योंकि हे अर्जुन, सत्वगुण सुख में लगाता है. रजोगण कर्म में दिया हो। फिर नींद पकड़ लेगी। लगाता है, तमोगुण तो ज्ञान को आच्छादन करके, ढंककर प्रमाद 45
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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