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________________ * गीता दर्शन भाग-7* छोड़ो, यह सब ब्रह्मचर्य वगैरह में कुछ सार नहीं है। और यह भी | तो महावीर अपने ज्ञान को बांट रहे हैं, कि बुद्ध अपनी करुणा कहेगा कि ब्रह्मचर्य साधना है, तो जल्दी क्या है; अभी जिंदगी बहुत | | | को बांट रहे हैं, कि जीसस अपनी सेवा को। यह सवाल नहीं है कि पड़ी है! क्या! बहुत गहरे में जो भी मैं हूं, वह मेरा न रहे, वह सबका हो हजार तर्क! वे नौ हिस्से धक्के देकर एक हिस्से को राजी करवा | | जाए। जो भी मैं हूं, मैं बिखर जाऊं और सबमें चला जाऊं; मेरा लेंगे। जब वे नौ हिस्से अपना काम पूरा करवा लेंगे, तब फिर एक | अपना कुछ बचे न। इसके स्वाभाविक बड़े गहरे परिणाम होंगे। हिस्सा बातें सोचने लगेगा भली-भली। फिर ब्रह्मचर्य वापस | जितना ही मैं छीनने का सोचता हूं, उतना ही मेरा अहंकार बढ़ता लौटेगा। लेकिन यह हमेशा कमजोर सिद्ध होगा नौ के मुकाबले। है। इसलिए जितनी मेरे पास संपदा होगी, जितनी मेरे पास यह अड़चन है प्रत्येक मनुष्य की। जो भी मनुष्य थोड़ा जीवन को सुविधा-साधन होंगे, उतना अहंकार होगा। जितना ही मैं बंटता हूं, बदलने की कोशिश में लगा है, उसकी यह कठिनाई है कि वह तय उतना ही मैं पिघलता हूं। जितनी ही मैं साझेदारी करता हूं, जितना करता है, लेकिन पूरा नहीं हो पाता। ही मेरा अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व में लीन होता है, उतना ही मेरा कृष्ण कहते हैं, दैवी संपदा तभी सक्रिय होगी, जब कोई व्यक्ति अहंकार शून्य होगा। ज्ञान-योग में निरंतर दृढ़ स्थित हो। दैवी संपदा के पास अस्मिता नहीं बचेगी, और आसुरी संपदा के होश इतना सधा हुआ हो...। जितना ज्यादा होश सधता है, पास सिर्फ अस्मिता ही बचेगी। अहंकार शैतान की आखिरी उतना ही पानी के ऊपर बर्फ आना शुरू हो जाता है। जितना ज्यादा उपलब्धि है। निरअहंकारिता परमात्म-भाव है। आप होश का प्रयोग करते हैं, उतना ज्यादा आपका अचेतन कम तो दान का अर्थ है, देना; और देने की वृत्ति को विकसित करना होने लगता है; चेतन बढ़ने लगता है। और एक ऐसी स्थिति भी है। | और उस घड़ी की प्रतीक्षा करना, जब मेरे पास कुछ भी न होगा देने टोटल अवेयरनेस की, परिपूर्ण प्रज्ञा की, जब आपका पूरा का पूरा | को। इसका यह अर्थ नहीं है कि आपके पास कुछ भी न होगा। सब मन प्रकाशित होता है, होश से भरा होता है। कुछ होगा; जितना आप देंगे, उतना बढ़ेगा। जितना आप बांटेंगे, उस स्थिति में जो भी निर्णय लिए जाते हैं. उनका कोई विरोध उतना ज्यादा होगा। जितना आप अपने को शन्य करेंगे. उलीचेंगे. नहीं है। उस स्थिति में जो भी आप तय करते हैं, वह होगा ही, | उतना ही पाएंगे कि साम्राज्य बड़ा होता जाता है। देने का अर्थ यह क्योंकि उससे विपरीत आपके भीतर कोई स्वर नहीं है। उस स्थिति नहीं है कि आपके पास कुछ बचेगा नहीं, लेकिन देने का भाव कि में जो भी जीवन है, वहां कोई पश्चात्ताप नहीं है। उस जीवन में सभी कुछ आनंद है और सभी कुछ अद्वैत है। दान, प्रेम का सार है। छीनना, घृणा का आधार है। तो अगर प्रेम सारी साधना प्रक्रियाएं ज्ञान-योग में दृढ़ स्थिति के ही उपाय हैं। | में भी आप दूसरे से कुछ लेना चाहते हैं, तो वह प्रेम नहीं है। वहां सारे ध्यान, सारी प्रार्थनाएं, सारी विधियां, कैसे आप ज्यादा से सिर्फ प्रेम के नाम पर शोषण है। जहां मांग है, वहां प्रेम की कोई ज्यादा होश में जीने लगें, मूर्छा टूटे, अमूर्छा बढ़े...। | संभावना नहीं है। प्रेम निपट दान है, बेशते। वह कुछ पाने की और दान तथा इंद्रियों का दमन, यज्ञ, स्वाध्याय तथा तप एवं | | आकांक्षा से नहीं है. देना ही आनंद है। और जिसने लिया. उसके शरीर और इंद्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता। प्रति अनुग्रह है। दान, देने का भाव, बहुत आधारभूत है। आसुरी संपदा है लेने का दान तथा इंद्रियों का दमन...। भाव, छीनने का भाव। जो दूसरे के पास है, वह मेरा कैसे हो जाए। दान और इंद्रियों के दमन को कृष्ण ने एक साथ कहा। यह भी सारा सब मेरा कैसे हो जाए, पजेशन, सारी दुनिया का मैं मालिक | थोड़ा विचारणीय है। क्योंकि जितना ही आप देंगे, उतनी ही इंद्रियां कैसे हो जाऊं। और दैवी संपदा देने की भावना है। जो भी मेरे पास अपने आप विसर्जित हो जाती हैं। जितना ही आप लेंगे, इकट्ठा है, वह बंट जाए। जो भी मैं हूं, उसे मैं साझेदारी कर लूं। जो मेरे पास करेंगे, उतनी ही इंद्रियां मजबूत होती चली जाती हैं। इंद्रियां छीनना है, वह दूसरा भी उसमें रस ले पाए, वह दूसरे का भी हो सके। | चाहती हैं; और जो देने को राजी है, उसकी इंद्रियां धीरे-धीरे शून्य __ कृष्ण यह नहीं कहते, क्या दान–कि धन का दान, कि संपत्ति | | हो जाती हैं। इंद्रियों का दमन इंद्रियों से लड़कर नहीं उपलब्ध होता का दान, कि भूमि का दान—यह सवाल नहीं है। सिर्फ दान! भाव! है। इंद्रियों का दमन स्वयं की निजता को पूरी तरह बांट देने से कुछ भी न बचे। 1292
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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