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* चाह है संसार और अचाह है परम सिद्धि *
अभी आप देखते हैं, पेट्रोल की कमी है, तो इंदिरा तांगे पर तीर्थ में हैं। और नान-इन जहां होता है, वहीं तीर्थ होता है। बैठकर...। इस मुल्क में अकल कभी आ नहीं सकती। अटल | | समझा उन्होंने कि यह आदमी पक्का नास्तिक मालूम होता है, बिहारी बाजपेयी बैलगाड़ी पर बैठे हैं। पीलू मोदी ने कहा कि वे | | अहंकारी मालूम होता है। क्योंकि नान-इन ने कहा, नान-इन जहां हाथी पर पहुंचेंगे। और मैं सोचता रहा कि गधे पर किसी को | | होता है, वहीं तीर्थ है। तीर्थ हमारे साथ चलता है। तीर्थ हमारी हवा जरूर...। क्योंकि वह राष्ट्रीय पशु है। वह चरित्र का प्रतीक है। है। हम तीर्थ में नहीं जाते।
हमारी सब जीवन की व्यवस्था ऐसी ही है, बचकानी है। छोटे लेकिन यह नान-इन ठीक कह रहा है। एक सिद्ध पुरुष के पद हैं, बड़े पद हैं; धन है, महल है, प्रतिष्ठाएं हैं; पद्म-भूषण हैं, वचन हैं। भारतरत्न हैं; सब बैठे हैं, कोई अपने घोड़े पर, कोई हाथी पर; | जिस दिन कहीं जाने को कुछ शेष न रह जाए! कब होगा ऐसा? चक्कर चल रहे हैं। जब तक कि कोई आपको उतार ही न दे! बच्चे | ऐसा तभी होगा, जब कोई वासना न रह जाएगी। जब तक कोई भी बड़ी दिक्कत देते हैं झूले से उतरने में। जब तक कि मां-बाप वासना है, तब तक कहीं जाने का मन बना ही रहेगा। उनको उतार ही न दें। रोते-चीखते वे बैठे हैं। जब तक इनको भी वासनाग्रस्त आदमी कहीं न कहीं जा रहा है, जाने की सोच रहा कोई उतार ही न ले इन घोड़ों पर से, तब तक वे अपनी तरफ से है; योजना बना रहा है; मगर जा रहा है। वस्तुतः न जा रहा हो, तो नहीं उतरते।
कल्पना में जा रहा है। लेकिन वासनाग्रस्त आदमी कहीं न कहीं जा यह सारा का सारा...। और पहुंचना कहीं भी नहीं है। यात्रा | | रहा है। एक बात पक्की है, वासनाग्रस्त आदमी वहां नहीं मिलेगा, बहुत है। तेज गति है। भाव जरूर है कि कहीं पहुंच जाएंगे। | जहां वह है। वहां आप उसको नहीं खोज सकते। अपने घर में वह
सिद्धि का अर्थ है ऐसी जगह, जहां से कहीं और जाने का भाव कभी नहीं ठहरता। वह हमेशा कहीं और अतिथि है। न उठे। जब तक कहीं जाने का भाव उठता है, तब तक संसार। सिद्ध पुरुष का अर्थ है, जो अपने घर में आ गया; जो अब वहीं सिद्धि का अर्थ है, जहां आप हैं, वही परम स्थान। उसके अतिरिक्त | है, जहां है। उससे अन्यथा जाने का कोई भाव नहीं। उससे अन्यथा कहीं जाने का कोई भाव नहीं है। कोई मोक्ष भी सामने लाकर रख | | जाने की कहीं कोई वृत्ति नहीं। उससे अन्यथा होने की कोई कामना दे, तो आप आंख बंद कर लें कि अपन पहले ही मोक्ष में बैठे हैं। नहीं। जो है, जहां है, जैसा है, राजी है। और यह राजीपन पूरा है।
नान-इन के संबंध में कथा है-एक झेन फकीर। एक पहाड़ की | | इस संसार से मुक्त होकर ज्ञानीजन जिस ज्ञान को पाकर परम तलहटी पर, जहां पहाड़ पर ऊपर एक तीर्थ था और हजारों यात्री | | सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं, वह मैं फिर से तेरे लिए कहूंगा। हे वर्ष में यात्रा करते थे पैदल पहाड़ पर, नान-इन पहाड़ की तलहटी | अर्जुन, इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप में एक झाड़ के नीचे लेटा रहता था। अनेक साधु-भिक्षु भी यात्रा | | को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और पर जाते थे। अज्ञानियों का कोई गृहस्थों से संबंध नहीं है। प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते हैं। साधु-संन्यासी भी वैसे ही अज्ञान में हैं। भिक्षु भी, संन्यासी भी, वे । इस ज्ञान को आश्रय करके, धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त भी पहाड़ पर यात्रा करने जाते हैं। जैसे वहां कुछ हो! नान-इन झाड़ | हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में के नीचे पड़ा रहता था।
एक दिन कुछ भिक्षुओं ने उसे देखा। वे भी विश्राम करने उसके जो व्यक्ति अपने स्वभाव में ठहर गया, ज्ञान में ठहर गया, जिसे वृक्ष के पास रुके थे। उन्होंने कहा, नान-इन, हम हर वर्ष यात्रा पर कुछ जानने को शेष न रहा और जिसे पहुंचने को कोई जगह न रही, आते हैं। तुम इस झाड़ के नीचे कब तक पड़े रहोगे? यात्रा नहीं जो विश्राम को उपलब्ध हो गया, जो सिद्ध हो गया, कृष्ण कह रहे करनी है? हमने तुम्हें कभी तीर्थ के उस मंदिर में नहीं देखा, पहाड़ हैं, ऐसा पुरुष फिर न तो पैदा होता है और न वस्तुतः मरता है। की चोटी पर नहीं देखा!
सष्टियां पैदा होती रहेंगी, लेकिन सष्टि का जाल फिर उसे अपने नान-इन ने कहा कि तुम जाओ। हम वहीं हैं, जहां तीर्थ है। हम | चक्र में न खींच पाएगा। चक्र घूमते रहेंगे सृष्टि के, लेकिन सृष्टि उस जगह बहुत पहले पहुंच गए हैं। जहां तुम पहाड़ पर खोज रहे का कोई भी आरा फिर उस पुरुष को अपनी ओर आकर्षित न कर हो जिस जगह को, उस जगह तो हम बहुत पहले पहुंच गए हैं। हम पाएगा। क्योंकि जिसको जाने की कहीं वासना न रही, वह सृष्टि में
व्याकुल नहीं होते।