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* गीता दर्शन भाग-7 *
मिलने की कोई आशा नहीं है।
और वहां से सहायता करेंगे, तो परमात्मा बन गया। बुद्ध ने परमात्मा को अस्वीकार किया है। और कहा कि कोई | | तो संघ शरणं गच्छामि। इसलिए दूसरा सूत्र जोड़ना पड़ा कि यह परमात्मा नहीं है।
जो भिक्षुओं का संघ है, साधकों का, सिद्धों का, इसकी शरण लेकिन तब एक मसीबत शरू हुई। दार्शनिक रूप से कोई जाओ। यह रहेगा। अड़चन नहीं है परमात्मा को अस्वीकार करने में, लेकिन तब | लेकिन यह भी जरूरी नहीं कि सदा हो। हिंदुस्तान से खो गया, साधक में शरणागति का भाव कैसे पैदा करोगे? परमात्मा हो या न बुद्धों का कोई संघ न रहा। तो किसकी शरण जाओ? तो बुद्ध को हो, यह मूल्यवान भी नहीं है। है, इसको सिद्ध करने की कोई | तीसरा सूत्र खोजना पड़ा, धम्मं शरणं गच्छामि-धर्म की शरण जरूरत भी नहीं है।
| जाओ। धर्म सदा रहेगा। द्ध ने कह दिया कि नहीं कोई परमात्मा है। लेकिन तब एक । लेकिन क्या फर्क पड़ता है। शरण जाना ही पड़ेगा। क्योंकि शरण अड़चन शुरू हुई। और वह अड़चन यह थी कि शरणागति कैसे जाए बिना साधक का अहंकार नहीं खोता। इसलिए पतंजलि ने अनूठी हो? व्यक्ति अपने अहंकार को कैसे खोएगा? तो उसके लिए नए बात कही है, और वह यह कि परमात्मा स्वयं को खोने की एक विधि सूत्र खोजने पड़े। वे नए सूत्र फिर वही के वही हो गए; उससे कोई है। परमात्मा है या नहीं, यह सवाल ही नहीं है। यह परमात्मा तो सिर्फ फर्क न पड़ा।
एक तरकीब है खुद को खोने की। इस दार्शनिक विवेचन का कोई भी तो बुद्ध-भिक्षु कहता है, बुद्धं शरणं गच्छामि। संघं शरणं | मूल्य नहीं है हिंदुओं के लिए कि ईश्वर है या नहीं। गच्छामि। धम्मं शरणं गच्छामि। पर शरणं गच्छामि, उससे बचने - ईसाइयों ने बड़ी मेहनत की ईश्वर को सिद्ध करने की कि वह है। का कोई उपाय नहीं है।
मगर उनकी मेहनत से कुछ सिद्ध नहीं होता। क्योंकि जिन दलीलों बुद्ध कहते हैं, कोई भगवान नहीं है। लेकिन बुद्ध के साधक को से सिद्ध करो, वे दलीलें काटी जा सकती हैं। कट जाती हैं। उनमें बुद्ध को ही भगवान कहना पड़ता है। और बुद्ध भी इनकार नहीं कोई बड़ी दलील ऐसी नहीं है, जो न काटी जा सके। करते कि मुझे भगवान मत कहो। क्योंकि बुद्ध को एक अड़चन | - हिंदुओं ने कभी कोशिश नहीं की ईश्वर को सिद्ध करने की। साफ दिखाई पड़ती है। बुद्ध कह सकते हैं, मुझे भगवान मत कहो।। क्योंकि वे कहते हैं, यह तो सिर्फ एक ट्रिक है; यह तो सिर्फ एक क्योंकि बुद्ध को कोई रस आता होगा किसी के भगवान कहने से, | | युक्ति है; यह तो सिर्फ एक उपाय है। उपाय है कि तुम शरण जा यह धारणा ही मूढ़तापूर्ण है।
सको। फिर बुद्ध इनकार क्यों नहीं कर देते? और जब कोई बुद्ध के | इसलिए जब पहली दफा ईसाई भारत आए या इस्लाम भारत सामने आकर कहता है, बुद्धं शरणं गच्छामि-हे बुद्ध, तुम्हारी | | आया, तो उनको बड़ी हैरानी हुई कि हिंदू भी कैसे मूढ़ हैं! कोई शरण जाता हूं, तब वे क्यों नहीं कहते कि मैं कोई भगवान नहीं हूं। | पत्थर को रखकर पूज रहा है, कोई झाड़ को पूज रहा है, कोई नदी मेरी शरण क्यों जाते हो!
को पूज रहा है। पत्थर! कोई मूर्ति भी नहीं है। ऐसे ही अनगढ़ पत्थर कारण है। बुद्ध को कोई रस नहीं है कि कोई उन्हें भगवान कहे, | पर सिंदूर पोत दिया है, उसको पूज रहे हैं। हनुमान जी हैं! बहुत न कहे। लेकिन यह जो जा रहा है शरण, इसके शरण जाने का कोई | अजीब लगा उनको कि यह सब क्या हो रहा है! मार्ग खोजना पड़े। और परमात्मा को इनकार कर दिया है तो । लेकिन उन्हें पता नहीं कि हिंदुओं ने बड़े गहन तत्व को खोज परमात्मा को जिस झंझट से छुटकारा दिला दिया, उसी झंझट में | | लिया है। वे यह कहते हैं कि इससे फर्क ही नहीं पड़ता कि तुम खुद को बैठ जाना पड़ा। वह परमात्मा की जगह खाली कर दी। किसको पूज रहे हो। तुम पूज रहे हो, यह सवाल है। तुम कहां झुक और कोई चाहिए, जिसकी शरण जा सकें।
रहे हो, यह बेमानी है। तुम झुक रहे हो, बस इतना काफी है। लेकिन बुद्ध तो कल मर जाएंगे। परमात्मा तो कभी नहीं मरता; तो तुम पीपल के वृक्ष के सामने झुक जाओ। यह तो बहाना है। बुद्ध कल मर जाएंगे। फिर क्या होगा? फिर किसकी शरण जाएंगे? यह पीपल का वृक्ष बहाना है। परमात्मा भी बहाना है। है या नहीं, क्योंकि लोग पूछेगे, बुद्ध अब कहां हैं? अगर कहते हो, आकाश | | इससे हमें कोई प्रयोजन भी नहीं है। हमें झुकने में सहयोगी है, तो में हैं, तो फिर परमात्मा बन गया। अगर कहते हो, कहीं भी बुद्ध हैं | झुक जाओ। क्योंकि झुकने से तुम उसे जान लोगे, जिसे बिना झुके
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