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रूपांतरण का सूत्र : साक्षी भाव
आदत और कर्म !
आखिर दो-चार दिन में एकनाथ ने कहा कि यह करता कौन है ! क्योंकि मिल जाती हैं चीजें आखिर में। लेकिन परेशानी होती है। तो वे जागते रहे। रात में देखा, चोर कर रहा है । वह एकनाथ का ही सामान निकालकर बगल वाले की पेटी में कर रहा था ।
कोई भी तरकीब से भूल जाएं। दूसरी तरफ मन लग जाता है । ताश खेलने लगे, दुख भूल गया। कुछ काम करने लगे, दुकान पर चले गए, सेवा करने लगे, कुछ न मिला तो गीता ही पढ़ने लगे, राम-राम जपने लगे; माला ले ली एक हाथ में, उसके गुरिए सरकाने लगे; कुछ कर रहे हैं। लेकिन कुछ करने से एक फायदा है कि वह जो भीतर दुख दिखाई पड़ता था, वह नहीं दिखाई पड़ता, मन डायवर्ट हुआ ! किसी और दिशा में लग गया। लेकिन घड़ीभर बाद, कब तक माला फेरिएगा ! फिर माला बंद की, दुख का फिर
स्मरण आया।
दुखी लोग राजस कर्म में लग रहे हैं। और जहां से कर्म निकलता है, वहीं पहुंचा देता है। प्रारंभ हमेशा अंत है। इस सूत्र को खयाल रखें, प्रारंभ हमेशा अंत है। क्योंकि बीज ही वृक्ष होगा। और अंत में फिर वृक्ष में बीज लग जाएंगे। और जिस बीज से वृक्ष हुआ है, वही हजारों बीज उस वृक्ष पर लगेंगे, दूसरे नहीं। अगर आपके दुख से कर्म निकला है, तो दुख बीज है, कर्म वृक्ष है। फिर हजार बीज उसी दुख के लग जाएंगे।
· इसलिए राजस कर्म दुख में ले जाता है, क्योंकि दुख से पैदा होता है।
और तामस कर्म का फल अज्ञान है। तामस कर्म का अर्थ है, नहीं करना था और करना पड़ा। करने की कोई इच्छा नहीं थी ।
सात्विक कर्म का अर्थ है, करने की कोई विक्षिप्तता नहीं थी । किसी और को जरूरत थी, इसलिए किया। राजस कर्म का अर्थ है, करने का पागलपन था। तुमको जरूरत थी या नहीं, हमने किया।
एकनाथ संत हुए महाराष्ट्र में। वे तीर्थयात्रा पर जा रहे थे। एक चोर ने प्रार्थना की कि महाराज, मैं भी साथ चलूं? एकनाथ ने कहा, तू जरा झंझटी है। और तेरा हमें पता है। उसने कहा, मैं बिलकुल कसम खाता हूं कि चोरी नहीं करूंगा, कम कम तीर्थयात्रा में। चोर था, उसकी बात का भरोसा हो सकता है। क्योंकि आमतौर से चोर भरोसा नहीं देते। लेकिन जब कोई चोर भरोसा देता है, तो उसका वचन माना जा सकता है।
एकनाथ ने उसे साथ ले लिया। लेकिन दूसरे ही दिन से उपद्रव शुरू हो गया। उपद्रव यह था कि एक के बिस्तर का सामान दूसरे के बिस्तर में चला जाए। किसी का कमीज किसी दूसरे की दरी के नीचे दबा हुआ मिले। किसी की जेब का पैसा दूसरे की जेब में। चोर चोरी नहीं करता था, लेकिन रात में सामान बदल देता था। खुद नहीं चुराता था, क्योंकि उसने कसम खा ली थी। लेकिन पुरानी
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उन्होंने कहा कि तू यह क्या कर रहा है? उसने कहा, महाराज, चोरी नहीं करूंगा, इसका वचन दिया है। लेकिन कर्म न करूं, तो | बड़ी मुश्किल है। और फिर तीन महीने बाद घर लौटूंगा, तो अभ्यास जारी रहना चाहिए। यह तीर्थयात्रा कब तक चलेगी! अंततः तो मुझे चोरी ही करनी है । किसी की हानि नहीं कर रहा हूं।
जो राजस व्यक्ति है, उसके कर्म का निकलना उसके भीतर की बेचैनी है। सात्विक का कर्म दूसरे पर दया है। राजसिक का कर्म खुद की बीमारी है । तामसिक का कर्म दूसरे के द्वारा पैदा की गई मजबूरी है। उसको धक्का दो कि चलो, उठो । जाओ, यह करो। | मजबूरी है। बंदूक लगाओ उनके पीछे, तो वे दो-चार कदम चलते । बंदूक हटा लो, वे वहीं बैठ जाते हैं।
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यह जो दूसरे के द्वारा मजबूरी से किया गया कर्म है तामस का, | यह गहन अज्ञान लाएगा। जैसे सात्विक कर्म ज्ञान लाता है, दूसरे पर दया के कारण खुद को हलका करता है। यह दूसरे के द्वारा जबरदस्ती | के कारण दूसरे पर घृणा पैदा होगी, हिंसा पैदा होगी; दूसरे को मार डालने का भाव होगा कि सारी दुनिया मेरे पीछे पड़ी है!
आलसी आदमी को ऐसे ही लगता है कि बाप पीछे पड़ा है, पत्नी पीछे पड़ी है, मां पीछे पड़ी है। सारी दुनिया मेरे पीछे पड़ी है कि कुछ करो। और उसे कुछ करने जैसा लगता ही नहीं । उसे लगता है, वह चुपचाप बैठा रहे । सारी दुनिया उसकी दुश्मन है !
ध्यान रहे, सात्विक व्यक्ति अपने चारों तरफ प्रेम बोता है । तामसिक वृत्ति का व्यक्ति अनजाने अपने चारों तरफ शत्रु पाता है। शत्रु उसको लगेंगे, क्योंकि वे सभी उसको निकालने की कोशिश में लगे हैं कि तुम कुछ करो। उसके मन में सबके प्रति घृणा, सबके प्रति द्वेष, सबके प्रति तिरस्कार, कोई मित्र नहीं है, सब दुश्मन | हैं - ऐसा भाव पैदा होता है । उसका धुआं बढ़ जाता है। उसके भीतर का धुंध बढ़ जाता है। दूसरे पर दया से धुंध कटता है, दूसरे पर घृणा से धुंध बढ़ता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, तामस कर्म का फल अज्ञान है। वह और भी डूबता जाता है। खुद को देखना और मुश्किल हो जाता है। खुद को पहचानना असंभव हो जाता है।