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* संन्यास गुणातीत है *
लेते हैं। जैसे ही कहेगा कि कुछ अनुभव हुआ है कि वे टूट पड़ेंगे | दुर्वासा के वैराग्य में कोई भी कमी नहीं है। लेकिन वह वैराग्य उस पर।
| सिवाय क्रोध के कुछ भी पैदा नहीं करता है। बड़ा दया का कृत्य है। हमें लगता है, बड़ी कठोर बात है। बड़ा दुर्वासा का वैराग्य क्रोध क्यों पैदा करता है? क्योंकि दुर्वासा का दया का कृत्य है। उनकी यह मार-पीट, शिष्य को खिड़की से | वैराग्य भीतर अहंकार बन गया। अहंकार पर जब चोट लगती है, उठाकर फेंक देना-कई बार ऐसा हुआ कि शिष्य की टांग टूट गई, तो क्रोध पैदा होता है। अगर भीतर अहंकार न हो, तो क्रोध के पैदा हाथ टूट गया-मगर वह कोई महंगा सौदा नहीं है। होने का कोई कारण नहीं है।
जैसे ही उसने अनुभव को पकड़ा कि उन्होंने उसको इतना दुख | | तो हम ऋषि-मनियों की कथाएं पढते हैं कि वे अभिशाप दे रहे दे दिया कि वह अनभव जैसे इस दख ने पोंछ दिया। अब वह दबारा | हैं। जिनको उन्होंने अभिशाप दिया है, वे शायद मुक्त भी हो गए अनुभव को पकड़ने में जरा संकोच करेगा। और दुबारा गुरु के पास हों। लेकिन जिन्होंने अभिशाप दिया है, वे अभी भी यहीं-कहीं तो आकर कहेगा ही नहीं कि ऐसा हो गया। और जब भी उसको भटक रहे होंगे संसार में। उनके मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है। दुबारा पकड़ने का खयाल होगा, तब उसको याद आएगा कि गुरु इसलिए कृष्ण कहते हैं, वैराग्य, ज्ञान, सुख, ये सभी बंधन हो ने जो व्यवहार किया था, वह बताता है कि मेरी पकड़ में कहीं कोई | सकते हैं। बुनियादी भूल थी। क्योंकि गुरु बिलकुल पागल हो गया था। जो | इसलिए तम से तो मुक्त होना ही है, रज से तो मुक्त होना ही है, सदा शांत था, जिसने कभी अपशब्द नहीं बोला था, उसने डंडा उठा | | सत्व से भी मुक्त होना है। असल में ऐसी कोई चीज न बचे भीतर, लिया था। उसने मुझे खिड़की के बाहर फेंक दिया था। कोई भयंकर | जिससे बंधने का उपाय रह जाए। सिर्फ शद्ध चेतना ही रह जाए। भूल हो गई है।
कोई गुण न बचे; निर्गुणता रह जाए। उसी को गुणातीत कृष्ण कहते .. सात्विक अनुभव ज्ञान देगा। ज्ञान से अहंकार जगेगा। सात्विक | | हैं। वही लक्षण है परम संन्यस्त का, वीतराग का। अनुभव वैराग्य देगा, वैराग्य से बड़ी अकड़ पैदा होगी।
इसलिए संन्यासी जैसी अकड़ सम्राटों में भी नहीं होती। संन्यासी जिस ढंग से चलता है, उसको देखें। सम्राट भी क्या चलेंगे। क्योंकि तीसरा प्रश्न: आप किस गुण-प्रधान वाले साधक को वह यह कह रहा है कि लात मार दी। यह सब संसार तुच्छ है, दो संन्यस्त कहते हैं? क्या संन्यास लेते ही किसी एक कौड़ी का है। हम इसे कोई मूल्य नहीं देते। तुम्हारे महल ना-कुछ गुण की प्रधानता होने लगती है? हैं। तुम्हारे स्वर्ण-शिखर, तुम्हारे ढेर हीरे-जवाहरातों के, कंकड़-पत्थर हैं। हम उस तरफ ध्यान नहीं देते। हमने सब छोड़ दिया। वैराग्य उदय हो गया है।
गण से संन्यास का संबंध ही नहीं है। निर्गुणता से यह वैराग्य खतरनाक है। यह तो एक नया राग हुआ। यह ण संन्यास का संबंध है। संन्यास भीतर की-भाव दशा विपरीत राग हुआ। यह राग से मुक्ति न हुई। यह तो वैराग्य को ही 0 है। न पकड़ने की कला का नाम संन्यास है। नहीं पकड़ लिया तुमने!
पकड़ेंगे कुछ भी। बिना पकड़े रहेंगे। ___ मन की आदत पकड़ने की है। इससे कोई संबंध नहीं कि आप पकड़ने का नाम गृहस्थ है। घर बनाएंगे चारों तरफ। कुछ क्या उसे पकड़ाते हैं। उसकी आदत पकड़ने की है; वह पकड़ने का | पकड़ेंगे। बिना सहारे नहीं जी सकेंगे। कोई आलंबन चाहिए। यंत्र है। आप धन कहो, वह धन पकड़ लेगा। दान कहो, दान पकड़ | भविष्य की सुरक्षा चाहिए। संपदा चाहिए कुछ! चाहे वह संपदा लेगा। भोग कहो, भोग पकड़ लेगा। त्याग कहो, त्याग पकड़ पुण्य की हो, शुभ कर्मों की हो, सत्व की हो। लेगा। आब्जेक्ट से कोई संबंध नहीं है। कुछ भी दे दो, मन पकड़ - संन्यस्त का अर्थ है, नहीं कोई घर बनाएंगे भीतर; नहीं कोई लेगा। और जिसको भी मन पकड लेगा. वही बंधन हो जाएगा। | संपदा भीतर इकट्ठी करेंगे; कोई परिग्रह न जुटाएंगे; भविष्य की
सैकड़ों कथाएं हैं वैरागियों की, जो अपने वैराग्य के कारण | | सोचेंगे ही नहीं। इस क्षण जीएंगे। और इस क्षण चेतना की भांति जन्मों-जन्मों तक मुक्त न हो पाए। क्योंकि अकड़ उनकी भारी है। | जीएंगे। और इतना ही जानेंगे कि मैं एक साक्षी हूं; एक देखने वाला
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