________________
* पुरुषोत्तम की खोज
एकाग्रता की शक्ति भी बुराई के रास्ते पर ले जाएगी। क्योंकि बुरे तो आप होना ही चाहते हैं। वे बीज वहां पड़े हैं, वर्षा की जरूरत | है । शक्ति की वर्षा हो जाए, अंकुर फूट आएंगे। और जो बीज आप छिपे हैं, वे प्रकट होने लगेंगे। और हम सब जहर के बीज लिए चल रहे हैं।
इसलिए मेरी पूरी चेष्टा रहती है निरंतर कि आपको शक्ति की दिशा में जाने का खयाल ही न पकड़े। आप मौन, शांति और शून्यता की दिशा में जाएं। क्योंकि जैसे-जैसे आप शांत होंगे, वे जोहर के बीज आपके भीतर पड़े हैं, उनके अंकुरित होने का कोई उपाय न रहेगा। आपके शांत होते-होते वे बीज दग्ध होने लगेंगे, जल जाएंगे । शक्ति आपको भी उपलब्ध होगी, लेकिन वह तभी उपलब्ध होगी, जब शांति इतनी घनी हो जाएगी कि सारे रोग के बीज जल चुके होंगे; तब आपको शक्ति उपलब्ध होगी। लेकिन उसका फिर कोई दुरुपयोग नहीं हो सकता है।
और उस शक्ति का, सच पूछिए तो, आप उपयोग भी नहीं करेंगे। और जब कोई व्यक्ति शक्तिशाली हो जाता है और उपयोग नहीं करता, तब परमात्मा उस शक्ति का उपयोग करता है। इस कीमिया को ठीक से समझ लें ।
जब तक आप उपयोग करने वाले हैं, तब तक परमात्मा आपका उपयोग नहीं करता। जब तक आप कर्ता हैं, तब तक परमात्मा के लिए आप उपकरण नहीं बनते, निमित्त नहीं बनते। जैसे ही आपको खयाल ही मिट जाता है कि कुछ करना है और शक्ति आपके पास होती है, उस शक्ति का उपयोग परमात्मा के हाथ में चला जाता है।
कृष्ण का पूरा जोर गीता में अर्जुन से यही है कि तू कर्तापन छोड़ . दे। और जैसे ही तेरा कर्तापन छूट जाएगा, वैसे ही परमात्मा तेरे भीतर से प्रवाहित होने लगेगा; तब तू निमित्त मात्र है।
तो साक्षी का मार्ग और एकाग्रता का मार्ग बड़े भिन्न-भिन्न हैं । पर आपकी आकांक्षा क्या है? अगर आप अपने अहंकार को और बड़ा करना चाहते हैं, उसको और महिमाशाली करना चाहते हैं, तो साक्षी की बात आपको न जमेगी। तब आप चाहेंगे कि एकाग्रता, कनसनट्रेशन, सिद्धियां, शक्तियां आपको उपलब्ध हो जाएं। पर ध्यान रहे, वैसी खोज धार्मिक नहीं है। जहां भी आपको यह खयाल होता है कि मैं कुछ हो जाऊं, आप धर्म से हट रहे हैं। इस बात को आप कसौटी बना लें।
यह भावना आपकी रोज गहरी होती जाए कि मैं मिट रहा हूं; मैं ना-कुछ हो रहा हूं। और अंततः मुझे उस जगह जाना है, जहां मैं खो
251
जाऊंगा, जहां बूंद को खोजने से भी न खोजा जा सकेगा; बूंद पूरी सागर में एक हो गई होगी। तो मुझे शक्ति की जरूरत भी क्या है ? शक्ति परमात्मा की है और मैं परमात्मा में खो जाऊंगा, तो सारा परमात्मा मेरा है। मुझे अलग से शक्ति की खोज की जरूरत क्या है !
अलग से शक्ति की खोज का अर्थ है, आप अपने अहंकार को बचाने में लगे हैं। और अहंकार ही संसार है।
दूसरा प्रश्न : सबको शास्त्र पढ़कर गुरु की खोज में निकलना पड़ता है। क्या शास्त्रों को पढ़ने की कष्ट - साध्य प्रक्रिया से गुजरना अनिवार्य है? क्या सीधे ही गुरु की खोज में नहीं निकला जा सकता है?
अ
संभव है; क्योंकि गुरु की खोज शास्त्र की असफलता से शुरू होती है। जब आप शास्त्र में खोजते हैं, खोजते हैं, खोजते हैं और नहीं पाते हैं, तभी गुरु की खोज शुरू होती है। जहां बाइबिल, कुरान, गीता और वेद हार जाते हैं, वहीं से गुरु की खोज शुरू होती है। क्यों ? और सीधे गुरु की तलाश में जाना क्यों असंभव है?
पहली बात, शास्त्र मुर्दा है। उससे आपके अहंकार को चोट नहीं लगती। गीता को सिर पर रखना बिलकुल आसान है। कुरान पर सिर झुकाना बिलकुल आसान है। लेकिन किसी जीवित व्यक्ति को सिर पर रखना बहुत कठिन है; और किसी जीवित व्यक्ति के चरणों में सिर रखना बहुत मुश्किल है।
किताब तो मुर्दा है। मरे हुए से आपके अहंकार को कोई खतरा नहीं है। एक जिंदा व्यक्ति खतरनाक है । और उसके चरणों में सिर झुकाते वक्त पीड़ा होती है । आपका अहंकार बल मारता है । इसलिए पहले व्यक्ति शास्त्र से खोज करता है कि अगर किताब से मिल जाए, तो क्यों झंझट में पड़ना !
फिर किताब आप खरीद सकते हैं, गुरु आप खरीद नहीं सकते। किताब दुकान-दुकान पर मिल जाती है। गुरु को बेचने वाली कोई दुकानें नहीं हैं। किताब के अर्थ आप अपने मतलब से निकालेंगे। किताब की व्याख्या करने के आप ही मालिक होंगे; क्या मतलब निकालते हैं, यह आप पर ही निर्भर होगा। और हमारा जो अचेतन है, वह अपने ही हिसाब से अर्थ निकालता है।