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गीता दर्शन भाग-7
सके।
विवेकानंद जैसा व्यक्ति भी अगर शक्ति का ऐसा क्षुद्र उपयोग करने को तैयार हो जाए, तो किसी दूसरे व्यक्ति के लिए तो बिलकुल स्वाभाविक है। इसलिए एकाग्रता पर मेरा जरा भी जोर नहीं है। पहले आपको एकाग्रता सधवाई जाए, फिर चाबी रखी जाए, इस सब अड़चन में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है।
साक्षी भाव सहज मार्ग है। और चूंकि शक्ति सीधी उपलब्ध नहीं होती, बल्कि शांति उपलब्ध होती है। जैसे-जैसे साक्षी सधता है, वैसे-वैसे आप परम शांत होते जाते हैं। उस परम शांति के | कारण ऐसे उपद्रवी खयाल आपमें उठेंगे ही नहीं। और दूसरे को कुछ करके दिखाना है, दूसरे के साथ कुछ करना है अपनी शक्ति से, ऐसी वासना नहीं जगेगी।
जाए, तो वह शक्ति स्वयं में लीन हो जाती है। और वह जो स्वयं में शक्ति की लीनता है, वह साक्षी का आधार बनने लगती है।
विवेकानंद ने एकाग्रता साधी और जैसा सभी को होगा, उनको भी हुआ, लगा कि मैं परम शक्तिशाली हो गया हूं। और कोई भी काम करना चाहूं, तो केवल विचार से हो सकता है।
रामकृष्ण के आश्रम में एक बहुत सीधा-सादा आदमी था। कालू उसका नाम था, कालीचरण । वह भक्त आदमी था। अपने छोटे-से कमरे में उसने कम से कम नहीं तो सौ-पचास देवी-देवता रख छोड़े थे। सब तरह के देवी-देवताओं को नमस्कार करना...! उसको कोई तीन घंटे से लेकर छः घंटे तक पूजा में लग जाते। क्योंकि सभी को थोड़ा-थोड़ा राजी करना पड़ता। इतने देवी- देवता थे।
और विवेकानंद उससे अक्सर कहते थे, क्योंकि विवेकानंद का मन वस्तुतः नास्तिक का मन था। शुरुआत से ही विचार और तर्क उनकी पकड़ थी। तो उस पर वे हंसते थे और उससे कहते थे, कालीचरण, फेंक। यह क्या कचरा इकट्ठा कर रखा है ! और इन पत्थरों के पीछे तू तीन-तीन, छः-छः घंटे खराब करता है!
जैसे ही उनको एकाग्रता का पहला अनुभव हुआ, उनको खयाल आया कालीचरण का, कि वह पूजा कर रहा है बगल के कमरे में। तो उन्होंने अपने मन में ही सोचा कि कालीचरण, बस, अब बहुत हो गया। सारे देवी-देवताओं को एक कपड़े में बांध और गंगा में फेंक आ
कालीचरण पूजा कर रहा था; अचानक उसे भाव आया कि सब बेकार है। सारे देवी-देवता उसने कपड़े में बांधे और गंगा की
तरफ चला ।
रामकृष्ण अपने कमरे में बैठे थे। उन्होंने कालीचरण को बुलाया कि कहां जा रहे हो ? उसने कहा, सब व्यर्थ है; कर चुके पूजा-पाठ बहुत; इससे कुछ होता नहीं। ये सब देवी-देवताओं को गंगा में फेंकने जा रहा हूं। कालीचरण को रामकृष्ण ने कहा, एक दो मिनट रुक । और आदमी भेजा कि विवेकानंद को उनकी कोठरी से निकालकर बाहर ले आओ। कालीचरण को कहा कि यह तू नहीं जा रहा है।
विवेकानंद घबड़ाए हुए आए। रामकृष्ण ने कहा कि देख, यह तूने क्या किया ! और अगर यही करना है एकाग्रता से, तो तेरी कुंजी सदा के लिए मैं रखे लेता हूं। अब मरने के तीन दिन पहले ही तुझे कुंजी वापस मिलेगी।
विवेकानंद मरने के तीन दिन पहले तक फिर एकाग्रता न साध
अन्यथा सभी तरह की शक्तियां भटकाव बन जाती हैं। धन की शक्ति से ही लोग बिगड़ते हैं, ऐसा मत सोचना आप; सभी तरह की शक्ति से बिगड़ते हैं। पद की शक्ति से लोग बिगड़ते हैं, ऐसा आप मत सोचना; सभी तरह की शक्ति से बिगड़ते हैं । सचाई तो यह है कि बिगड़ने की तो आपकी मनोदशा सदा सिर्फ आप कमजोर हैं और बिगड़ने के लायक आपके पास शक्ति नहीं है।
मेरे पास अक्सर लोग आते हैं। वे कहते हैं, फलां आदमी इतना भला था; सेवक था, भूदान में काम करता था; गरीबों के चरण दबाता था; मरीजों का इलाज करता था; विधवाओं के लिए आश्रम खोलता था। वह जब से राजपद पर चला गया है, कि | मिनिस्टर हो गया है, तब से बिलकुल बदल गया है ! शक्ति ने उसे खराब कर दिया।
शक्ति क्यों खराब करेगी? उस आदमी के भीतर खराबी के सारे मार्ग थे, लेकिन उन पर बहने की हिम्मत न थी; और कोई उपाय न था। जैसे ही हिम्मत मिली, उपाय मिला, साधन जुटे, वह आदमी बिगड़ गया।
लोग कहते हैं, फलां आदमी कितना भला था जब गरीब था। जब से उसके पास पैसा आया है, तब से वह पागलपन कर रहा है।
पागलपन सभी करना चाहते हैं, लेकिन पागलपन करने को भी तो सुविधा चाहिए। पाप सभी करना चाहते हैं, लेकिन पाप करने के लिए भी तो सुगमता चाहिए। बुरा सभी करना चाहते हैं, लेकिन आपकी सामर्थ्य भी तो बुरा करने की होनी चाहिए। जब भी सामर्थ्य मिलती है, बुराई तत्क्षण पकड़ लेती है।
पर मैं आपसे कहता हूं कि धन और पद की ही शक्तियां नहीं,
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