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________________ संकल्प – संसार का या मोक्ष का हो, चिंता हो, असफलता हो - जो भी अनुभव हो, उसे पूरी तरह जीया जाए, होशपूर्वक जीया जाए। वह अनुभव ही आपको बताएगा कि जीवन व्यर्थ है, छोड़ देने योग्य है। पकड़ने योग्य यहां कुछ भी नहीं है। अब हम सूत्र को लें। उस स्वयं प्रकाशमय परम पद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चंद्रमा और न अग्नि ही । तथा जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते, वही मेरा परम धाम है। पहली बात, इस जगत में जो भी हम देखते हैं, वह दूसरे से प्रकाशित है। आप मुझे देख रहे हैं; बिजली बुझ जाए, फिर आप मुझे नहीं देख सकेंगे। मैं आपको देख रहा हूं; बिजली बुझ जाए, फिर मैं आपको नहीं देख सकूंगा । आप हैं, लेकिन कोई और चीज चाहिए, जिसके द्वारा आप प्रकाशित हैं। दिन में दिखाई पड़ता है, रात में दिखाई नहीं पड़ता। आंख तो होती है, चीजें भी होती हैं, लेकिन सूरज नहीं होता। सभी चीजें पर - प्रकाश चाहती हैं। कोई और चाहिए, जो प्रकाशित कर सके। कृष्ण कह रहे हैं, लेकिन मेरा परम धाम वहां है, जहां न तो सूर्य के प्रकाश की कोई जरूरत है; न चंद्र के प्रकाश की कोई जरूरत है; न अग्नि की कोई जरूरत है; जहां दूसरे प्रकाश की कोई जरूरत नहीं है। मेरा परम धाम स्व-प्रकाशित है, सेल्फ इल्युमिन्ड है। यह बात बड़ी समझ लेने जैसी है। क्योंकि यह बहुत गहरा और मौलिक आधार है समस्त साधना का । और इसकी खोज ही साधक का लक्ष्य है। ऐसी कौन-सी घटना है जो स्व- प्रकाशित है ? ऐसा क्या अनुभव है जो स्व-प्रकाशित है ? आप आंख बंद कर लें, तो मैं नहीं दिखाई पडूंगा। आंख बंद करके लेकिन आप तो अपने को दिखाई पड़ते ही रहेंगे। शरीर दिखाई नहीं पड़ेगा, लेकिन स्वयं का होना तो प्रतीत होता ही रहेगा। दीया बुझ जाए, मैं आपको दिखाई नहीं पडूंगा। लेकिन आप अपने को तो अनुभव करते ही रहेंगे कि मैं हूं। आपके होने के लिए तो किसी और प्रकाश की जरूरत नहीं है। तो आपके होने में कोई एक तत्व चेतना का है, जो स्वयं प्रकाशित है; जिसका होना अपने आप में काफी है। यह जो चेतना की हल्की-सी झलक आपके भीतर है, यही झलक जब पूरी प्रकट हो जाती है, तो कृष्ण कहते हैं, वह परम धाम मेरा है; वही मैं हूं। उस स्वयं प्रकाशमय परम पद को न तो सूर्य प्रकाशित कर सकता है— न करने की कोई जरूरत है-न चंद्रमा और न अग्नि, तथा जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते, वही मेरा परम धाम है। यहां कृष्ण कह रहे हैं कि जितना ही व्यक्ति चेतन होता चला | जाता है, उतना ही वह परम धाम की तरफ गति करता है। और जिस दिन परम चैतन्य प्रकट होता है, उस परम चैतन्य को प्रकाशित करने के लिए किसी की भी कोई जरूरत नहीं है; वह स्व- प्रकाशित है। और एक ही बात इस जगत में स्व- प्रकाशित है, वह स्वयं का होना है। उसके लिए किसी प्रमाण की कोई जरूरत नहीं है। उसको असिद्ध करने का भी कोई उपाय नहीं है। अगर आप यह भी कहें कि मैं नहीं हूं, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। आपके कहने से सिर्फ आपका होना ही सिद्ध होता है। और अंधा आदमी भी अपने को अनुभव करता है। अंधेरे में भी आप अपने को अनुभव करते हैं। आपकी आंखें चली जाएं, आपके कान खो जाएं, आपके हाथ काट दिए जाएं, आपकी जीभ काट दी जाए, आपकी नाक नष्ट कर दी जाए, तो भी आप अपना अनुभव कर सकते हैं; तो भी आप होंगे और आपकी प्रतीति में रत्तीभर का भी फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि आंखों से दूसरे देखे जाते हैं, स्वयं नहीं | कानों से दूसरे सुने जाते हैं, स्वयं नहीं । सारी इंद्रियां भी खो जाएं, तो भीतर के होने में जरा भी अंतर नहीं पड़ता। वह जो भीतर का होना है, वहां कोई प्रकाश नहीं है, फिर भी आप जानते हैं कि आप हैं। और आप कभी भीतर नहीं गए हैं अभी । अगर आप भीतर जाएं, तो आपको वहां भी प्रकाश का अनुभव होना शुरू हो जाएगा। ध्यान में जो लोग भी गति किए हैं, उन सभी का अनुभव प्रकाश का अनुभव है । वे किस प्रकाश को जानते हैं? कबीर कहते हैं कि जैसे आकाश में बिजलियां चमक रही हैं, ऐसा मेरे भीतर कुछ हो रहा है। दादू कहते हैं कि जैसे हजार सूरज एक साथ उग गए हों, ऐसा मेरे भीतर कुछ उग आया है। फिर चाहे मुसलमान फकीर हों, ईसाई फकीर हों, सभी फकीरों का अनुभव | है कि जब भीतर ध्यान की गहराई उतरती है, तो परम प्रकाश के अनुभव होते हैं। वह प्रकाश न तो सूरज का है, न अग्नि का है, न चांद का है। | वह प्रकाश कहां से आता है ? वह प्रकाश कहीं से भी नहीं आता; आप स्वयं ही वह प्रकाश हैं। आपका होना ही वह प्रकाश है। 207 इस प्रकाश को कह रहे हैं कृष्ण कि वह मेरा परम धाम है । और जो उस स्थिति को उपलब्ध हो जाता है, वह इस संसार में वापस
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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