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* चाह है संसार और अचाह है परम सिद्धि *
इस क्षण में कृष्ण कहते हैं, तू निमित्त बन जा। अब तू कर्ता की | संसार है। आपके लिए भी संसार है। संसार तो ज्ञानी के लिए भी तरह सोच ही मत। अब तू यह निर्णय ही मत ले। अब निर्णय है। लेकिन ज्ञानी के पास मन नहीं है, इसलिए इसी संसार को वह
अस्तित्व के हाथ छोड़ दे। तू सिर्फ एक उपकरण की तरह, जो हो | किसी और ढंग से देखने में समर्थ हो जाता है। यह संसार तब उसे रहा है उसे हो जाने दे। तू सिर्फ साक्षी रह और उपकरण बन। ब्रह्म-स्वरूप दिखाई पड़ता है। इस संसार में तब उसे वह सारा
जो व्यक्ति पहले क्षण में रुक जाए, उसे निमित्त बनने की कभी | | उपद्रव, वह सारा युद्ध, वह सारा विग्रह नहीं दिखाई पड़ता, जो हमें जरूरत न पड़ेगी। इसलिए महावीर की साधना में निमित्त शब्द का | | दिखाई पड़ता है। यह सारा जो प्रपंच का जाल हमें दिखाई पड़ता उपाय ही नहीं है, उपकरण बनने की बात ही फिजूल है। जो व्यक्ति है। यह हमारे मन का विभाजन है। किसी वासना के अंतिम चरण में साक्षी और निमित्त बन जाए, वह ऐसा समझें कि एक प्रिज्म में से कोई सूरज की किरण को दूसरी वासना के प्रथम क्षण में कभी कदम नहीं उठाएगा। जो पहले निकालता है। जैसे ही सूरज की किरण प्रिज्म को पार करती है कि कदम पर रुक जाए, उसे अंतिम तक पहुंचने का कोई कारण नहीं सात हिस्सों में टूट जाती है, सात रंगों में टूट जाती है, इंद्रधनुष पैदा है। जो अंतिम पर निमित्त बन जाए, उस साक्षी भाव में वह चीजों | | हो जाता है। इंद्रधनुष इसी तरह बनता है। हवा में अटके हुए पानी को इतनी प्रगाढ़ता में देख लेगा कि दूसरी कोई भी वासना बीज की | के कण प्रिज्म का काम करते हैं। उन पानी के कणों से जैसे ही सूरज तरह उसको धोखा नहीं दे पाएगी।
| की किरण गुजरती है, वह सात हिस्सों में टूट जाती है। इंद्रधनुष अगर अर्जुन इस युद्ध में निमित्त बनकर गुजर जाए, तो कोई | निर्मित हो जाता है। सूरज की किरण में कोई भी रंग नहीं है, टूटकर दूसरी द्रौपदी उसे कभी नहीं लुभाएगी। फिर कोई वासना का बीज, | | सात रंग हो जाते हैं। सूरज की किरण रंगहीन है, टूटकर इंद्रधनुष जहां से उपद्रव शुरू होता है, उसे पकड़ेगा नहीं। वह आर-पार बन जाती है। देखने में समर्थ हो जाएगा, उसकी दृष्टि पारदर्शी हो जाएगी। । | जगत में कोई भेद नहीं, कोई प्रकार नहीं, कोई रंग नहीं। लेकिन
अंतिम क्षण में निमित्त और पहले क्षण में मालिक, ये साधना | | मन के प्रिज्म से दिखाई पड़ने पर बहुत रंगीन हो जाता है, इंद्रधनुष की के सूत्र हैं। और दो में से एक काफी है। क्योंकि दूसरे की जरूरत | | तरह हो जाता है। जगत हमारे मन से देखा गया ब्रह्म है। और जब मन नहीं पड़ेगी।
से जगत देखा जाता है, अस्तित्व देखा जाता है, तो संसार निर्मित हो ज्ञानों में भी अति उत्तम परम ज्ञान को मैं फिर तेरे लिए कहूंगा कि | | जाता है। संसार टूटा हुआ इंद्रधनुष है। किसी भी भांति प्रिज्म बीच से जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि | हट जाए, तो इंद्रधनुष खो जाएगा और बिना रंग की शुद्ध किरण शेष को प्राप्त होते हैं।
रह जाएगी, रूप-रंगहीन। अदृश्य किरण शेष रह जाएगी। इस संसार से मुक्त होकर...।
| संसार अर्थात मन। इस शब्द के कारण बड़ी भ्रांति हई। क्योंकि संसार को थोड़ा समझ लेना जरूरी है। संसार वह नहीं है, जो | | निरंतर ज्ञानीजन कहते रहे, संसार से ऊपर उठो। और अज्ञानीजन आपके चारों तरफ फैला हुआ दिखाई पड़ता है। संसार वह है, जो | समझते रहे कि बाहर जो संसार फैला है, इससे भागो। इससे ऊपर आपके मन के चारों तरफ आपने बो रखा है। और अगर इस बाहर | उठो; मतलब हिमालय चले जाओ। कोई ऊंची जगह खोज लो, के संसार से आपका कोई भी संबंध है, तो इस भीतर के मन की | | जहां संसार से ऊपर उठ गए। दूर हट जाओ इससे। बुनावट के कारण है।
__ और इंद्रधनुष से जो भागता है, उससे ज्यादा पागल और कौन इस बाहर के संसार को मिटाने, छोड़ने, भागने का कोई अर्थ है! इंद्रधनुष न दिखाई पड़े, ऐसी दृष्टि चाहिए। यह दृष्टि भीतरी नहीं है। इस भीतर मन की जड़ों को, इस मन के जाल को, जिससे | घटना है। आप देखते हैं चारों तरफ, जिससे परमात्मा आपको संसार जैसा | इसलिए कृष्ण कह सकते हैं, ज्ञानों में भी अति उत्तम परम ज्ञान दिखाई पड़ता है, इन वासनाओं के परदों को या चश्मों को अलग मैं तुझसे फिर से कहूंगा कि जिसको जानकर सब मुनिजन संसार से कर लेने की बात है।
| मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं। नहीं तो परम ज्ञान संसार से कैसे मुक्त करेगा! संसार तो रहेगा| | संसार से मुक्त होना अर्थात मन से मुक्त होना। और मन से जो ज्ञानी के लिए भी। कृष्ण के लिए भी संसार है। बुद्ध के लिए भी मुक्त हुआ, वह परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। क्योंकि वह