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* आसुरी व्यक्ति की रुग्णताएं *
कि कहीं आकाश में कोई बैठा हुआ व्यक्ति। परमात्मा का अर्थ है, | पहचाना जा सकता है। उसकी खंडित स्थिति हो, आत्मा खो गई। यह जगत रहस्यपूर्ण है। और जैसे ही यह जगत रहस्यपूर्ण होता है, यह जगत अखंडता है। इस अखंडता के भीतर जो छिपा हुआ वैसे ही हमारे हृदय में एक नया स्पंदन शुरू होता है। रहस्य है, उसका नाम परमात्मा है।
आज अगर दुनिया में इतनी ऊब, इतनी उदासी, इतनी बोर्डम है, __ आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहते हैं, जगत आश्चर्यरहित और तो उसका कारण आसुरी संपदा वाली विचार-धारा का प्रभाव है। | सर्वथा झूठा है और बिना ईश्वर के अपने आप स्त्री-पुरुष के संयोग क्योंकि जीवन में जब कोई रहस्य न हो, तो रस भी न होगा। और | से उत्पन्न हुआ है। इसलिए जगत केवल भोगों को भोगने के लिए जब सब चीजें मिट्टी-पत्थर का जोड़ हो...।
है। इसके सिवाय और क्या है! अगर दो व्यक्तियों में प्रेम हो जाए, वैज्ञानिक से पूछे, अगर कोई रहस्य नहीं, तो फिर कोई गंतव्य नहीं। अगर कोई बायोलाजिस्ट से पूछे, तो वह कहता है कि कुछ खास बात नहीं; | छिपी हुई नियति नहीं, तो पहुंचने का कोई अर्थ नहीं, कहीं जाने को सिर्फ हार्मोन्स की ही बात है। इन दोनों व्यक्तियों में जो भीतर शरीर | नहीं। फिर आप यहां हैं, और इस क्षण जिस बात में भी सुख मिलता में हार्मोन्स बन रहे हैं, वह जो रासायनिक प्रक्रिया हो रही है, उसमें हुआ मालूम पड़े, उसको कर लेना उचित है। आकर्षण है। उस आकर्षण की वजह से इनको प्रेम वगैरह का चार्वाकों ने कहा है कि उधार लेकर भी अगर घी पीना पड़े, तो खयाल पैदा हो रहा है। प्रेम सिर्फ खयाल है, असली चीज हार्मोनल | चिंता मत करना, उधार लेना। क्योंकि मरने के बाद न लेने वाला आकर्षण है।
बचता है, न देने वाला। तब चोरी में कोई बुराई नहीं, अगर सुख विज्ञान सभी चीजों को समझा देता है। यह जानकर आपको | मिलता हो। तब किसी से छीनकर कोई चीज भोग लेने में कुछ हर्ज आश्चर्य होगा कि हम इस मुल्क में विज्ञान को अविद्या कहते थे। | नहीं, अगर सुख मिलता हो। क्योंकि जीवन की कोई परम गति नहीं पुराने दिनों में ऋषियों ने ज्ञान के दो हिस्से किए हैं, विद्या और है और न कोई परम नियंत्रण है, और न जीवन का कोई अर्थ है, जो अविद्या। विद्या उस ज्ञान को कहा है, जो दैवी संपदा की तरफ ले | | आपको आगे की तरफ खींचना है। इस क्षण जो भोगने योग्य लगता जाता है। और अविद्या उस ज्ञान को कहा है, जो आसुरी संपदा की हो, उसे पागल की तरह भोग लेना ही आसुरी संपदा वाले व्यक्ति तरफ ले जाता है।
के जीवन का ढंग और शैली होगी। विज्ञान अविद्या है। जानना तो वहां बहुत होता है, लेकिन फिर ___ इस सारी दौड़ के पीछे दौड़ता हुआ कोई सूत्र नहीं है। जैसे एक भी जानने का जो परम लक्ष्य है, वह चूक जाता है। | माला हम बनाते हैं, उसमें मनके हैं और भीतर हर मनके के दौड़ता
अगर हम वैज्ञानिक को कहें, भीतर आदमी के आत्मा है। तो वह | हुआ एक धागा है। वह धागा दिखाई नहीं पड़ता, मनके दिखाई शरीर को काटने को तैयार है, वह काटकर शरीर को देखने को | पड़ते हैं। वह धागा सब मनकों को बांधे है, पर अदृश्य है। तैयार है। काटने पर आत्मा मिलती नहीं। यह वैसे ही है, जैसे कि दैवी संपदा वाले व्यक्ति के जीवन का प्रत्येक कृत्य एक मनका पिकासो का एक सुंदर चित्र हो, और हम कहें, बहुत सुंदर है। और | है। और प्रत्येक मनके को वह भीतर के एक प्रयोजन से बांधे हुए वैज्ञानिक उसको काटकर, प्रयोगशाला में ले जाकर, सब रंगों को है, एक लक्ष्य, एक जीवन की दिशा, एक जीवन की परिपूर्ण
करके, विश्लिष्ट करके और कह दे कि ये सब रंग कतकत्यता का भाव। जीवन कहीं जा रहा है, एक नियति, वह अलग-अलग रखे हुए हैं, सौंदर्य कहीं भी नहीं है।
उसका धागा है। तो वह जो भी कर रहा है, हर मनके को उस धागे चित्र को काटकर सौंदर्य नहीं खोजा जा सकता। क्योंकि चित्र | में बांधता जा रहा है। कृत्य मनकों की तरह अलग-अलग हैं और का सौंदर्य चित्र की परिपूर्णता में है, वह उसकी होलनेस में था, वह | उसका जीवन एक धागे की तरह सारे मनकों को सम्हाले हुए है, रंगों के जोड़ में था। जैसे ही तोड़ लिया, जोड़ समाप्त हो गए, | एक इंटीग्रेशन। सौंदर्य खो गया।
__ आसुरी संपदा वाले व्यक्ति के जीवन में कोई धागा नहीं है। हर आदमी की आत्मा उसके अंग-अंग को काटकर नहीं पकडी जा | कृत्य टूटा हुआ मनका है। दो मनकों में कोई जोड़ नहीं है। इसलिए सकती। वह उसकी समग्रता में है, वह सौंदर्य की तरह उसकी आसुरी संपदा वाला व्यक्ति करीब-करीब विक्षिप्त की तरह जीता समग्रता में छिपी है। उसकी समग्रता अखंडित रहे, तो ही आत्मा को है। उसकी न कोई दिशा है, न कोई गंतव्य है। बस, हर क्षण जहां
अलग कर
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