________________
असंग साक्षी
है, लेकिन कहीं न कहीं लिखना जरूर चाहिए। अज्ञानी अगर पुतला भी बनाकर मिट्टी का काट दे, मैं मानता हूं, पाप है। फर्क समझ लेना जरूरी है।
ज्ञानी हम कहते उसे हैं, जो कहता है, मैं कर्ता नहीं हूं। अगर वह का भी रहा हो, तो सिर्फ उसके गुण ही काट रहे हैं, वह नहीं काट रहा है। और उस हत्या के कृत्य में भी वह सिर्फ साक्षी है। जरूरी नहीं कि ज्ञानी ऐसा करे; आवश्यकता भी नहीं है। ज्ञानी होते-होते वस्तुतः भीतर के सारे तत्व धीरे-धीरे समस्वरता को उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसी घटना शायद ही कभी घटती है। लेकिन घट सकती है।
उस संभावना को मानकर यह शास्त्रों में सूत्र है कि अगर ब्राह्मण भी काट दे ! और ब्राह्मण को काटने का मतलब है, क्योंकि ब्राह्मण का मतलब है, जिसने इस जीवन में श्रेष्ठतम, सुंदरतम जीवन-दशा पा ली हो, उसको भी काट दे, अच्छे से अच्छे फूल को भी मिटा दे, तो भी उसे कोई पाप नहीं है।
पाप इसलिए नहीं है कि वह जानता है कि मैं कर्ता नहीं हूं। और आप किसी की तस्वीर भी फाड़ दें क्रोध से, मिट्टी का पुतला बनाकर काट दें...। ऐसा अज्ञानी करते भी हैं। किसी का पुतला बनाकर निकालेंगे जुलूस, उसको जला देंगे। उनका भाव बड़ी गहरी हिंसा का है। और जलाते वक्त उनके मन में पूरा भाव है कर्ता का कि हम मारे डाल रहे हैं।
मैं कर्ता हूं, तो मैं पापी हो जाता हूं। मैं कर्ता नहीं हूं, तो पाप का कोई कारण नहीं है। इसलिए हमने ज्ञानी को समस्त नियमों के पार रखा है। कोई नियम उस पर लगते नहीं। वह नियमातीत है। इसीलिए नियमातीत है कि जब कर्तृत्व उसका कोई न रहा, तो सब नियम कर्म पर लगते हैं और कर्ता पर लगते हैं । साक्षी पर कोई नियम कैसे लग सकता है ?
जैसे ही कोई तीन गुणों के सारे कर्म हैं, ऐसा जानता है, और स्वयं को साक्षी, वह मुझ सच्चिदानंदनघनरूप परमात्मा को तत्व से पहचान लेता है, उस काल में वह पुरुष मुझे प्राप्त हो जाता है।
तथा यह पुरुष इन स्थूल शरीर की उत्पत्ति के कारणरूप तीनों गुणों को उल्लंघन करके... ।
इस शरीर के जन्म के कारण वे तीनों गुण ही हैं। और उन तीनों गुणों के साथ मेरा तादात्म्य है, वही मुझे नए शरीरों को ग्रहण करने ले जाता है।
जो उनका उल्लंघन कर जाता है, वह जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था, सब प्रकार के दुखों से मुक्त हुआ परमानंद को प्राप्त होता है।
इसमें समझ में आ जाएगा कि हो सकता है, उसका नया जन्म न हो। यह भी समझ में आ सकता है कि उसे दुख न हो । लेकिन मृत्यु न होगी, यह कैसे समझ में आएगा !
महावीर भी मरते हैं, बुद्ध भी मरते हैं, कृष्ण खुद भी मरते हैं। मृत्यु तो होगी, लेकिन जिसने भी जान लिया कि मैं साक्षी हूं, वह मृत्यु का भी साक्षी रहेगा। तो वह देखेगा कि गुण ही मर रहे हैं; गुणों का जाल शरीर ही मर रहा है, मैं नहीं मर रहा हूं। उसकी वृद्धावस्था संभव नहीं है। असल में उसकी कोई अवस्था संभव नहीं है।
जवान होकर वह जवान नहीं रहेगा। बूढ़ा होकर बूढ़ा नहीं रहेगा। बच्चा होकर बच्चा नहीं रहेगा। क्योंकि अब सब अवस्थाएं गुणों की हैं। बचपन गुणों का एक रूप है। जवानी गुणों का दूसरा रूप है। बुढ़ापा गुणों का तीसरा रूप है। और वह तीनों के पार है । इसलिए न वह बच्चा है, न जवान है, न बूढ़ा है। किसी अवस्था में नहीं है। सभी अवस्थाओं के पार है।
इस ट्रांसेंडेंस को, इस भावातीत अवस्था को अनुभव कर लेना मुक्ति है।
इसलिए कृष्ण ने कहा कि अर्जुन जिस ज्ञान से परम सिद्धि उपलब्ध होती है, वह मैं तुझे फिर से कहूंगा। वे फिर-फिरकर, कैसे व्यक्ति अपनी परम मुक्ति को इसी क्षण अनुभव कर ले सकता है, उसके सूत्र दे रहे हैं। आज इतना ही।
115