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________________ *गीता दर्शन भाग-7 * राजनीतिज्ञों के सबसे बड़े दार्शनिक मेक्यावेली ने लिखा है कि इसलिए जीसस या उन जैसे महाप्रज्ञावान पुरुषों ने सेवा को, तुम जिस आदमी का सीढ़ी की तरह उपयोग करो, उपयोग करने के दूसरे की सेवा को धर्म की आधारशिला बनाया। उसमें मूल्य है। बाद उसे जिंदा मत छोड़ना। उसको काट-पीट डालना। क्योंकि तुम | उस बात का इतना ही मूल्य है कि दूसरे के लिए जरूरत पड़े, तो उसका सीढ़ी की तरह उपयोग कर सके हो, दूसरे भी उसका सीढ़ी | तुम मिट जाना, लेकिन किसी को भी अपने लिए मत मिटाना। की तरह उपयोग कर सकते हैं। पूछा है, यह कैसे संभव होगा कि हम दूसरे को साध्य समझ लें? इसलिए सभी राजनीतिज्ञ यही करते हैं। जिनके कंधे पर पैर | समझने का सवाल नहीं है, यह तथ्य है। यह वास्तविक स्थिति रखकर राजनीतिज्ञ पहुंचता है राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री के पद पर, | है कि आप केंद्र नहीं हैं इस जगत के। आप एक छोटी-सी.लहर हैं। पहुंचते ही उस आदमी को गिराने में लगता है। क्योंकि वह आदमी | | इस विराट अस्तित्व में आप एक छोटा-सा कण हैं। यह विराट खतरनाक है, उसके कंधे पर दूसरा भी कल कोई आ सकता है। | अस्तित्व आपके लिए नहीं है, आप इस विराट अस्तित्व के लिए इसके पहले कि दूसरा उसके कंधे पर सवार हो, उसका विनाश कर हैं। जैसे ही यह खयाल में आ जाएगा...। देना जरूरी है। या उसे उस जगह पहुंचा देना जरूरी है, जहां वह और इसे खयाल में लाने के लिए कुछ सोचने की जरूरत नहीं सीढ़ी का काम न दे सके। | है, सिर्फ आंख खोलने की जरूरत है, और यह दिखाई पड़ जाएगा। इसलिए सब राजनीतिज्ञ, जिन सीढ़ियों से चढ़ते हैं, उनको जला आप कल नहीं थे, आज हैं, कल नहीं हो जाएंगे। यह अस्तित्व देते हैं। जिन रास्तों से गुजरते हैं, उनको तोड़ देते हैं। जिन सेतुओं | आपके पहले भी था, अब भी है, आपके बाद भी होगा। आप इस को पार करते हैं, उनको गिरा देते हैं, ताकि दूसरा पीछे से उन पर अस्तित्व में से उठते हैं, इसी अस्तित्व में डूब जाते हैं। यह अस्तित्व 'न आ सके। धन की यात्रा करने वाला भी वही करेगा। आपसे बड़ा है, विराट है। आप एक छोटे-से अंश हैं। अंश केंद्र महत्वाकांक्षी अपने को साध्य मानता है, दूसरे को साधन। | नहीं हो सकता, अंशी ही केंद्र होगा। अंश सब को मिटाकर अपने महत्वाकांक्षी कभी भी धार्मिक नहीं हो सकता। एंबीशन, को बचाने की बात सोचे, तो पागलपन है। यह होने वाला नहीं है। महत्वाकांक्षा इस जगत में सबसे अधार्मिक घटना है। | वह खुद ही मिटेगा। लेकिन यह अंश अगर अपने को मिटाकर सारे धर्म का सूत्र तो कृष्ण कह रहे हैं; वह यह है कि दूसरा साधन | को बचाने की सोचे, तो कभी भी नहीं मिटेगा। क्योंकि समग्र उसे नहीं है, साध्य है। दैवी संपदा का व्यक्ति दूसरे को साध्य मानता | | स्वीकार कर लेगा। समग्र के साथ आत्मसात और एक हो जाएगा। है। कभी जरूरत पड़े, तो वह सीढ़ी बन सकता है, लेकिन दूसरे को जिनको हमने भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति कहा है-कृष्ण को, सीढ़ी नहीं बनाएगा। अपने सुख के लिए दूसरे के दुख का सवाल | | बुद्ध को, महावीर को-उनको भगवत्ता को उपलब्ध व्यक्ति नहीं है। अगर अपना सुख दूसरे के सुख से ही मिल सकता हो, तो । | इसीलिए कहा है कि उन्होंने अपने अंश को अंशी में छोड़ दिया। ही दैवी संपदा का व्यक्ति उस सुख को स्वीकार करेगा। अब वे लड़ नहीं रहे; अब उनका कोई विरोध इस जगत से नहीं है। और यह समझ लेने जैसा है कि अगर आपके सुख से दूसरा भी | इस अस्तित्व से उनका रत्तीमात्र फासला नहीं है। उन्होंने अपने को सुखी होता हो, तो वह सुख आनंद है। यह आनंद का फर्क है। जिस | पूरा इसमें समर्पित कर दिया, लीन कर दिया। आपके सुख से दूसरा दुखी होता हो, वह आनंद नहीं है। और वह | जो व्यक्ति स्वयं को साध्य मानता है. वह लीन कैसे करे? सिर्फ दिखाई पड़ता है सुख है, वह सुख भी नहीं है। और एक दिन | | समर्पण कैसे करे? जो अपने को निमित्त और साधन मान लेता है, आप अनुभव करेंगे, तब आपके भीतर से भी आवाज आएगी कि वह तत्क्षण लीन हो जाता है। सोलन, सोलन, तू ठीक था। मुझे क्षमा करना। मैं गलती पर हूं।। कृष्ण की पूरी शिक्षा अर्जुन को यही है कि तू निमित्त बन जा। तू मेरा सुख अगर आस-पास सभी का सुख बनता हो, तो ही | | यह खयाल ही छोड़ दे कि तू है। तू यही समझ कि परमात्मा है और आनंद है। उसे फिर कोई भी छीन न सकेगा। तू केवल उसका एक मार्ग है, कि जैसे परमात्मा की बांसुरी है तू; दैवी और आसुरी संपदा, दूसरों का हम उपयोग करते हैं, कैसा परमात्मा बोल रहा है, उसकी वाणी है और तू सिर्फ बांस की पोली उपयोग करते हैं, इससे विभाजित होती है। दैवी संपदा का व्यक्ति | नली है। तू सिर्फ मार्ग दे, स्वरों को बहने दे, अवरोध मत कर। दूसरे का उपयोग ही नहीं करता, दूसरे के उपयोग आ सकता है। इसे हम कैसे उपलब्ध करें? 392
SR No.002410
Book TitleGita Darshan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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