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*जीवन की दिशा
कैसे उपलब्ध करने का सवाल नहीं है। यह स्थिति है। थोड़ा-सा कर सकते हैं। लेकिन यह भी उनके अहंकार की ही यात्रा है। उनके सजग और आंख खोलकर देखने की जरूरत है। ऐसा है। जैसे | | मंदिर का अर्थ है, उनसे बड़ा मंदिर और कोई खड़ा नहीं कर आपकी दो आंखें हैं, दो हाथ हैं; आप आंख बंद किए बैठे हैं और | सकता। उनके यज्ञ का अर्थ है कि ऐसा यज्ञ पृथ्वी पर कभी हुआ कहते हैं, मैं कैसे मानूं कि मेरे दो हाथ हैं! तो मैं यह कहूं, आंख | नहीं। उनका धर्म भी उनकी श्रेष्ठता को ही सिद्ध करे, इतना ही उनके खोलें और देखें, दो हाथ हैं। इसको मानने की जरूरत नहीं है, सिर्फ धर्म का प्रयोजन है। आंख खोलने की जरूरत है।
शास्त्र-विधि से रहित केवल नाममात्र यज्ञों द्वारा पाखंड से यजन जब भी आप थोड़ा-सा देखेंगे चारों तरफ, तो यह आपको करते हैं...। समझने में कठिनाई नहीं होगी कि आप केंद्र नहीं हो सकते। वे अगर शुभ भी करेंगे, तो सिर्फ इसलिए, ताकि वे पूजे जाएं। विक्षिप्तता है यह मानना कि मैं केंद्र हूं।
वे अगर कुछ भला भी करेंगे, दान भी देंगे, तो सिर्फ इसलिए ताकि अब हम सूत्र को लें।
वे जाने जाएं। उनके प्रत्येक कृत्य का लक्ष्य वे स्वयं हैं। वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमंडी पुरुष धन और मान | तथा वे अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के परायण के मद से युक्त हुए, शास्त्र-विधि से रहित केवल नाममात्र यज्ञों | | हुए एवं दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर द्वारा पाखंड से यजन करते हैं।
| में स्थित मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाले हैं। तथा वे अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के पारायण परमात्मा कहीं भी हो, उससे उन्हें द्वेष होगा। क्यों? क्योंकि हुए एवं दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर परमात्मा की स्वीकृति, अपने अहंकार का खंडन है। में स्थित मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाले हैं।
नीत्से ने अपने एक वचन में लिखा है-जब वह पागल हो ऐसे उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं | गया, तब उसने अपनी डायरी में लिखा है कि मैं परमात्मा को संसार में बारंबार आसुरी योनियों में ही गिराता हूं। इसलिए हे | | स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि अगर परमात्मा है, तो फिर मैं नंबर अर्जुन, वे मूढ़ पुरुष जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त हुए, मेरे | | दो हूं, इसलिए मैं परमात्मा को स्वीकार नहीं कर सकता। नंबर एक को न प्राप्त होकर, उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं। तो मैं ही हो सकता हूं और या यह हो सकता है कि नंबर एक कोई
आसुरी संपदा के जो व्यक्ति हैं, वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने | | भी नहीं है। लेकिन परमात्मा कहीं भी है, तो फिर मैं पीछे पड़ता हूं। वाले हैं। उनके लिए श्रेष्ठता का एक ही अर्थ है कि जो भी मैं हूं, फिर मेरी स्थिति नीची हो जाती है। वही श्रेष्ठता है। अपना होना उनकी श्रेष्ठता की परिभाषा है। श्रेष्ठता इसलिए परमात्मा को स्वीकार करना आसुरी वृत्ति वाले व्यक्ति और अहंकार में उन्हें कोई भेद नहीं है।
को अति कठिन है। इसलिए नहीं कि उसको पता है कि परमात्मा नेपोलियन बोनापार्ट ने कहा है...। उसने कुछ कानून बनाए, नहीं है। इसलिए भी नहीं कि तर्कों से सिद्ध होता है कि परमात्म फिर उनको बदल दिया, फिर बदल दिया। तो उसके राजमंत्रियों ने नहीं है। वह तर्क भी देगा, वह सिद्ध भी करेगा। लेकिन न तो तर्कों कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं! कानून थिर होना चाहिए। और | से सिद्ध होता है कि परमात्मा है और न सिद्ध होता है कि परमात्मा इस तरह तो अराजकता हो जाएगी। तो नेपोलियन बोनापार्ट ने नहीं है। इसे थोड़ा समझ लें। कहा, आइ एम दि लॉ-और कोई कानून नहीं है, मैं कानून हूं। जो | मनुष्य की बुद्धि न तो पक्ष में कुछ तय कर सकती है, न विपक्ष मुझसे निकलता है, वह कानून है। कोई कानून मेरे ऊपर नहीं है; में। अब तक हजारों-हजारों तर्क दिए गए हैं। जितने पक्ष में हैं, उतने
ही विपक्ष में। बराबर संतुलन है। कोई आस्तिक किसी नास्तिक को यही आसुरी संपदा वाले का प्राथमिक लक्षण है, मैं श्रेष्ठ हूं। राजी नहीं कर सकता कि ईश्वर है; और कोई नास्तिक किसी और धन और मान के मद से युक्त हुए...।
आस्तिक को राजी नहीं करवा सकता कि ईश्वर नहीं है। दोनों बातें ऐसे व्यक्ति अगर धर्म भी करते हैं. तो उनका धर्म भी धन और समतल हैं। तर्कों से कछ सिद्ध नहीं हआ है। मद का ही मान होता है। वे बड़ा मंदिर खड़ा कर सकते हैं, जो A. लेकिन फिर भी कुछ लोग मानते हैं कि ईश्वर है। कुछ लोग आकाश को छुए। वे यज्ञ करवा सकते हैं, करोड़ों रुपए उसमें खर्च मानते हैं, नहीं है। तो किस आधार पर मानते होंगे, क्योंकि तर्क से
मैं ही कानून हूं।
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